यूं तो चुनाव में चंदा देना आम बात है। लेकिन ये चंदा कौन दे रहा है? कितना दे रहा है, किसे दे रहा है और क्यों दे रहा है? ये सवाल हर चुनाव में उठते रहे हैं। इलेक्ट्रॉरल बांड का मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को मिले चंदे के ब्योरे की जांच करेगा। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग से समीक्षा के लिए चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों के वित्तपोषण का विवरण तैयार करने को कहा। बॉन्ड के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान याची के वकील प्रशांत भूषण ने दलील दी है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है। इससे लोगों के जानने के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। चुनाव आयोग तक को पता नहीं होता। यह जानने का लोगों को मौलिक अधिकार है।
बजट २०१७ के दौरान संसद में तत्तकालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अभी तक चुनावी चंदा में कोई पारदर्शिता नहीं है। अगर नगद चंदा दिया जाता है तो धन का स्रोत, देने वाले और किसे दिया जा रहा है। कोई नहीं जान पाता है। अब चंदा देने वाला बैंक एकाउंट के जरिए ही चुनावी बांड खरीद सकेगा और राजनीतिक दल भी चुनाव आयोग को आयकर दाखिल करते हुए ये बताएंगे कि उन्हें कितना चंदा चुनावी बांड के जरिए मिला है। सरकार की माने तो इन बांड का मकसद राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाना है। केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ की धारा २९ए के तहत रजिस्टर्ड हैं। उन्होंने पिछले आम चुनाव में लोकसभा या विधानसभा के लिए डाले गए वोटों में कम से कम १ प्रतिशत वोट हासिल किए हों, वे ही चुनावी बांड हासिल करने के पात्र हैं।
चुनावी बांड योजना को अंग्रेजी में इलेक्टोरल बॉन्डस स्कीम कहते हैं। ये भारतीय स्टेट बैंक की नई दिल्ली, गांधीनगर, चंडीगढ़, बेंगलुरु, हैदराबाद, भुवनेश्वर, भोपाल, मुंबई, जयपुर, लखनऊ, चेन्नई, कलकत्ता और गुवाहाटी समेत २९ शाखाओं में मिलते हैं। बीजेपी को चुनावी बांड योजना बनने के बाद से पांच वर्षों में बांड के माध्यम से दिए गए धन का आधे से अधिक (५७ प्रतिशत) भाजपा के पास गया है। चुनाव आयोग को दिए खुलासे के मुताबिक, पार्टी को २०१७ से २०२२ के बीच बॉन्ड के जरिए ५,२७१.९७ करोड़ रुपये मिले। मार्च २०२२ को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में भाजपा को चुनावी बांड में १,०३३ करोड़ रुपये, २०२१ में २२.३८ करोड़ रुपये, २०२० में २,५५५ करोड़ रुपये और २०१९ में १,४५० करोड़ रुपये मिले। पार्टी ने वित्तीय वर्ष के लिए प्राप्तियों में २१० करोड़ रुपये की भी घोषणा की। कांग्रेस को २०२२ तक बेचे गए कुल चुनावी बांड का ९५२ करोड़ रुपये या १० प्रतिशत प्राप्त हुआ। कांग्रेस को वित्तीय वर्ष २०२२ में चुनावी बांड से २५३ करोड़ रुपये, २०२१ में १० करोड़ रुपये, २०२० में ३१७ करोड़ रुपये मिले। २०१९ में ३८३ करोड़ रुपये मिले। तृणमूल कांग्रेस, जो २०११ से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है, ने पूरे वर्षों में कुल ७६७.८८ करोड़ रुपये के योगदान की घोषणा की है, जो भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे स्थान पर है। मार्च २०२२ में खत्म होने वाले वित्तीय वर्ष में तृणमूल कांग्रेस को ५२८ करोड़ रुपये, २०२१ में ४२ करोड़ रुपये, २०२० में १०० करोड़ रुपये और २०१९ में ९७ करोड़ रुपये मिले। ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ने २०१८-२०१९ और २०२१-२०२२ के बीच चुनावी बांड में ६२२ करोड़ रुपये की घोषणा की। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, २००० से राज्य में प्रभुत्व रखने वाली पार्टी को योजना के शुरुआती वर्ष में चुनावी बांड के माध्यम से कोई दान नहीं मिला। हालाँकि, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि उस राशि का कितना हिस्सा केवल बांड से प्राप्त हुआ है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) के अनुसार, राष्ट्रीय पार्टियों ने चुनावी बांड दान में उल्लेखनीय वृद्धि का अनुभव किया, जिसमें वित्त वर्ष २०१७-१८ और वित्त वर्ष २०२१-२२ के बीच ७४३ प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। इसके विपरीत, इसी अवधि के दौरान राष्ट्रीय पार्टियों को कॉर्पाेरेट चंदा केवल ४८ प्रतिशत बढ़ा। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) १,००० रुपये, १०,००० रुपये, १ लाख रुपये, १० लाख रुपये और १ करोड़ रुपये के मूल्यवर्ग में बांड जारी करता है। इस साल जुलाई में एडीआर ने कहा था कि २०१६-१७ और २०२१-२२ के बीच राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त सभी दान का आधे से अधिक हिस्सा चुनावी बांड के माध्यम से था और भाजपा को अन्य सभी राष्ट्रीय दलों की तुलना में अधिक धन प्राप्त हुआ। इसमें कहा गया है कि २०१६-१७ और २०२१-२२ के बीच सात राष्ट्रीय दलों और २४ राज्य दलों को लगभग १६,४३७ करोड़ रुपये का दान प्राप्त हुआ। इसमें से ९,१८८.३५ करोड़ रुपये लगभग ५६ प्रतिशत – चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त हुए। पहले चुनावी बॉन्ड के जरिये सियासी दलों तक जो धन आता था उसे वो गुप्त रख सकती थीं. लेकिन पिछले दिनों इस पर विवाद हुआ. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सभी राजनीतिक दलों को इलेक्शन कमीशन के समक्ष इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी देनी होगी. इसके साथ दलों को बैंक डीटेल्स भी देना होगा। अदालत ने कहा है कि राजनीतिक दल, आयोग को एक सील बंद लिफाफे में सारी जानकारी दें।
इलेक्टोरल बॉन्ड शुरू से ही विवादों में है। केंद्र ने २९ जनवरी २०१८ को इसे लागू किया था । तर्वâ था कि इसके जरिए डोनेशन से चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार होगा। अब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर तमाम खामियां गिनाई गई हैं। अदालत में चुनाव आयोग ने भी बताया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के कारण राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग की पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच इसका परीक्षण कर रही है और उम्मीद है कि आम चुनाव से पहले इस पर सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला आ जाए। जो भी फैसला होगा वह आने वाले दिनों में चुनावी फंडिंग की दिशा और दशा तय करने में अहम होगा। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि चंदा लेने का ये तरीका लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। वेस्टमिंस्टर विश्विद्यालय में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेमोक्रेसी की डायरेक्टर निताशा कौल फाइनेंशियल टाइम्स के लिए लिखे एक लेख में बताया कि भारत में चुनाव किस हद तक महंगा होता है। वो आंकड़ों के हवाले से लिखती हैं कि २०१९ के आम चुनाव में २०१४ की तुलना में दोगुना खर्च हुआ था। भारत का आखिरी आम चुनाव २०१६ के यूएस प्रेसिडेंट इलेक्शन से ज्यादा महंगा था। इससे पता चलता है कि चुनाव में रुपयों का बोलबाला बढ़ा है।