समाज

सरोगेसी के नियम में बदलाव:दंपती अब एग-स्पर्म में से कोई एक बाहर से ले पाएंगे…

विधवा-तलाकशुदा भी पेरेंट्स बन सकते हैं

केंद्र सरकार ने सरोगेसी (रेगुलेशन) रूल्स 2022 के नियम 7 में बदलाव किया है। सरोगेसी के नियम में बदलाव:दंपती अब एग-स्पर्म में से कोई एक बाहर से ले पाएंगे… इस बदलाव के बाद सरोगेसी के जरिए बच्चा चाहने वाला कोई भी विवाहित महिला या पुरुष, डोनर एग या स्पर्म के जरिए पेरेंट्स बन सकता है, लेकिन दोनों में से एक गेमेट ( शुक्राणु या अंडाणु) दंपती का ही होना चाहिए। इसमें एक कंडीशन यह भी रखी गई है कि पति-पत्नी में से किसी एक के मेडिकली अनफिट होने की पुष्टि डिस्ट्रिक्ट मेडिकल बोर्ड करेगा। यह बदलाव सिंगल मदर के लिए भी खुशखबरी है। विधवा-तलाकशुदा भी पेरेंट्स बन सकते हैं, विधवा या तलाकशुदा महिला भी अपने एग के लिए डोनर स्पर्म का इस्तेमाल कर सकती है। यह बदलाव सुप्रीम कोर्ट से पूछे गए सवाल के बाद हुआ है। जनवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि कई महिलाओं ने नियम 7 के खिलाफ अपील की है। इसके बावजूद इस पर कोई फैसला क्यों नहीं हो पा रहा है।

उत्तराखंड बना यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने वाला पहला राज्य

उत्तराखंड या किसी अन्य राज्य में ये कैसे लागू हो सकता है?

Uttarakhand UCC: आजाद भारत में उत्तराखंड ऐसा करने वाला पहला राज्य बन गया है. यह विधेयक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा विधानसभा में पेश किया गया. इसके बाद उत्तराखंड विधानसभा में इस विधेयक को ध्वनिमत से पारित किया गया है. यूसीसी के जरिए सभी नागरिकों के लिए समान कानून का दावा किया गया है.

Uniform Civil Code Bill: उत्तराखंड विधानसभा ने बुधवार को ऐतिहासिक कदम उठाते हुए समान नागरिक संहिता यानि कि यूनिफॉर्म सिविल कोड विधेयक पारित कर दिया है. आजाद भारत में उत्तराखंड ऐसा करने वाला पहला राज्य बन गया है. यह विधेयक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा सभी नागरिकों के लिए उनके धर्म की परवाह किए बिना एक समान विवाह, तलाक, भूमि, संपत्ति और विरासत कानून स्थापित करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था.  इससे पहले विधेयक को लेकर विधानसभा में जोरदार बहस हुई और बुधवार को भी इस पर चर्चा जारी रही. विपक्षी दलों के सदस्यों ने पहले इस विधेयक को सदन की प्रवर समिति को भेजे जाने की मांग की. हालांकि इसके बाद विधानसभा में इस विधेयक को ध्वनिमत से पारित किया गया है. इस तरह उत्तराखंड ने इतिहास रच दिया है.

सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान कानून!
धामी सरकार ने यूसीसी पर कानून पास करने के लिए विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाया था. यूसीसी में शादी, तलाक, विरासत, गोद लेने और अन्य मामलों से संबंधित सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान कानून शामिल हैं. इस ड्राफ्ट को तैयार करने के लिए पांच सदस्यीय समिति का गठन किया गया था. रिटायर्ड जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अगुआई वाली पांच सदस्यीय समिति ने बीते शुक्रवार को ही अपनी रिपोर्ट सीएम पुष्कर सिंह धामी को सौंपी थी. इसी रिपोर्ट के आधार पर विधानसभा से पास होने के बाद यह कानून बन गया है

500 रुपये के नोट पर श्रीराम और राम मंदिर की फोटो वायरल 

500 रुपये के नोट पर श्रीराम और राम मंदिर की फोटो वायरल 

सोशल मीडिया पर कई फेक मैसेजों की भरमार आ गई है।  नोट दिख रहा है, मगर ये नोट आम पांच सौ रुपये के नोट की तरह नहीं है। दरअसल इस नोट पर भगवान राम और राम मंदिर की फोटो छपी है। सोशल मीडिया पर श्रीराम और राम मंदिर की फोटो के साथ 500 रुपये के नोट की फोटो लगातार ट्रेंड कर रही है। इसके साथ ही ये भी वायरल हो रहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ से भगवान श्रीराम की तस्वीर वाले 500 रुपये के नई सीरीज के नोट जारी करने को लेकर कोई आधिकारिक सूचना सामने नहीं आई है। प्रभु श्रीराम और राम मंदिर की तस्वीर के साथ वायरल हो रहा 500 रुपये के नोट की फोटो पूरी तरह से फर्जी है। बता दें कि इससे पहले भी भारतीय रिजर्व बैंक सोशल मीडिया में आई कई खबरों का खंडन कर चुका है। ये पहला मौका नहीं है जब सोशल मीडिया पर इस तरह का मैसेज वायरल हो रहा है जिसमें नोट के डिजायन को बदलने की बात हो रही है। इससे पहले जून 2022 में भी खबरें आई थी कि महात्मा गांधी की फोटो की जगह नोट पर रवींद्रनाथ टैगोर की फोटो लगाई जाएगी। हालांकि ये सभी खबरें फर्जी साबित हुई है।

क्या है सोशल मीडिया के इस दावे की सच्चाई

सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा ये दावा झूठा है। 500 रुपए के नए नोट जारी करने की कोई सूचना आरबीआई या केंद्र सरकार की तरफ से नहीं दी गई है। वहीं, जिन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है, उन्हें 500 रुपए के असली नोट की फोटो से छेड़छाड़ कर बनाया गया है। फोटो बनाने वाला यूजर आया सामने इसके साथ ही @raghunmurthy07 नाम के एक सोशल मीडिया यूजर ने ये भी दावा किया है कि उसने एडिट करके ये फोटो बनाई हैं। यूजर ने अपनी पोस्ट में लिखा है, ‘ये तस्वीरें मैंने एडिट की हैं और ये केवल मेरी कल्पना है। कृपया गलत जानकारी के साथ इन तस्वीरों को शेयर मत कीजिए।’ कुछ और यूजर्स ने भी लिखा कि हां ये तस्वीरें उनके इसी दोस्त ने एडिट की हैं

सेल्फी संस्कृति का दुष्परिणाम…

पाश्चात्य आधुनिकता को प्रोत्साहित करती सेल्फी संस्कृति के अच्छे परिणाम बहुत कम हैं जबकि दुष्परिणाम सबसे अधिक हैं ठीक उसीप्रकार जैसे मोबाइल संस्कृति के कुछ अच्छे परिणाम हैं तो उसके दुष्परिणाम बहुत अधिक हैं। सच कहा जाय तो इस सेल्फी संस्कृति को आजकल की सबसे लोकप्रिय सोसल मीडिया जैसेःफेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, ह्वाट्सऐप और कु आदि सबसे अधिक बढावा दे रहे हैं। यह संस्कृति वास्तव में मात्र दिखावे को बढ़ावा दे रही है। सबसे दुख की बात तो यह है कि सेलीब्रेटी सेल्फी, राजनेता सेल्फी, समूह सेल्फी, शादी-विवाह सेल्फी, क्रिकेट खेल सेल्फी, पर्यटन सेल्फी, प्रेमी-प्रेमिका सेल्फी, स्कूल-कॉलेज के बच्चे तथा युवाओं की सेल्फी, सितारें होटलों के अंतर्गत निर्मित अत्याधुनिक सेल्फी प्वाइंट आदि इसको सतत बढ़ावा दे रहे हैं। विकासशील देश भारतवर्ष में सेल्फी संस्कृति के अनेक दुष्परिणाम २०१४ से सबसे अधिक देखने को मिल रहे हैं। इससे साइबर अपराध बढ़ रहे हैं। दुर्घटनाएं सबसे अधिक हो रही हैं। प्रतिदिन इससे मौतों की संख्या बहुत बढ़ रही है। इससे अश्लीलता फल-फूल रही है।
भारतीय परिपेक्ष्य में अगर विचार किया जाय तो सेल्फी संस्कृति से आज सभी प्रभावित हैं बालक से वृद्ध तक, युवा-युवती से लेकर घर-परिवार तक। ऐसा पहले देखा जाता था कि महिलाएं जब कहीं जातीं थीं तो वे अपने साथ एक छोटा दर्पण लेकर जातीं थीं जिसमें वे अपनी छवि देखकर अति प्रसन्न होतीं थीं। आज उस दर्पण का स्थान मोबाइल फोन ले लिया है जिसमें वे अपनी तस्वीरें चौबीसों घण्टे देखती रहतीं हैं। श्रमिक और मजदूर वर्ग के लोग की कार्यक्षमता को यह संस्कृति बहुत कम कर दी है। वे भी सेल्फी संस्कृति से बुरी तरह से प्रभावित हो चुके हैं। शिक्षक-छात्र समुदाय का क्या कहना, वे भी इससे ग्रसित हो चुके हैं। पहले बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी कवि सम्मेलनों में कविगण स्वयं कविताओं का वाचनकर सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे लेकिन आजकल तो मोबाइल फोन उनकी अस्मिता को कम कर दिया है जिसमें कवितापाठ से पूर्व वे अपनी सेल्फी लेकर देख लेते हैं कि वे कैसे दिखते हैं। बड़े-बड़े कथाव्यास भी इससे वंचित नहीं हैं। साधु-महात्मा भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाये हैं। आप किसी भी देवालय में चले जाइए वहां का पूजक पूजा-पाठ पर कम सेल्फी पर अधिक ध्यान देता है। वह सबसे पहले देखता है कि उसका टीका तथा उसकी पोशाक कितनी सुंदर दिखती है।
सच तो यह है कि सनातनी १६ संस्कारों को भी सेल्फी संस्कृति बुरी तरह से प्रभावित कर चुकी है। यही कारण है कि इस संस्कृति के दुष्परिणामों से आस्ट्रेलिया, अमरीका, रुसी परिसंघ, ब्रिटेन, चीन, जापान, कनाडा जैसे अनेक देश के लोग, युवा-युवती और बडे-बुजुर्ग आदि प्रभावित हो चुके हैं। २०१३ से यह संस्कृति, जापानी मोबाइल फोन संस्कृति सबसे पहले पूर्वी एशिया में मनोरंजन की सबसे बडी साधन थी लेकिन इसका दुष्परिणाम वहां भी स्पष्ट रुप से आज देखा जा सकता है। शादी-विवाह में तो सेल्फी लेना तो एक आम बात हो गई है। अब तो मनपसंद वर-वधू के लिए तो सेल्फी संस्कृति पहली आवश्यकता बन चुकी है।सेल्फी संस्कृति हमारे सनातनी वैवाहिक जीवन को यूवज एण्ड थ्रो के रुप में परिणित कर दी है। इस संस्कृति आजकल तो पराये को अपना तथा अपनों को पराया बनाने में अहम् भूमिका निभा रही है।
भारत के कुछ राज्यों में चुनाव का माहौल है जिसमें सेल्फी संस्कृति की भूमिका देखने योग्य हैं। ऐसा लगता है कि २०२४ में भारत के लोकसभा के आमचुनावों में भी सेल्फी संस्कृति का दुष्परिणाम निर्विवाद रुप में देखने को अवश्य मिलेगा। २०१४ वर्ष वैसे तो सेल्फी वर्ष था। लेकिन उसके लिए भी सेल्फी सुरक्षा गाइड का होना आवश्यक था। आज के सूचना प्रौद्योगिकी के युग में सेल्फी संस्कृति पर अंकुश लगाने की जरुरत है जिससे कि हमारी भारतीयता सुरक्षित रह सके और हम गर्व के साथ कह सकें कि हम भारतीय आध्यात्मिक जीवन के विश्वगुरु हैं जहां पर हमारी पहचान सेल्फी नहीं है अपितु हमारी आंतरिक खूबियां हैं जो विश्व शांति, मैत्रा, एकता तथा विश्वबंधुत्व की भावना को आदिकाल से बढावा देती आ रहीं हैं और आनेवाले दिनों में भी देती रहेंगी। उसमें सेल्फी संस्कृति की भूमिका मात्र इतनी होगी कि इस संस्कृति से भारत का वैज्ञानिक विकास हो सकेगा तथा भारत की अंतरिक्ष विजययात्रा सफल होगी।
-अशोक पाण्डेय

आज का युग वास्तव में विज्ञापन का ही युग है

आज का युग वास्तव में विज्ञापन का ही युग है। विज्ञापन की अवधारणा बिलकुल नई अवधारणा है भले ही विज्ञापन का परम्परागत अर्थ -जानने के लिए प्रेरित करना ही क्यों न हो। आज का यह विज्ञापन युग अपनी लोकप्रियता विश्व बाजार से लेकर भारतीय बाजार के सभी आयामों में स्पष्ट रुप से बना चुकी है। आज की वह अमिट पहचान बन चुकी है। पहले सभी संस्कारों में इसकी उपयोगिता छोटे आकार में देखी जाती थी। पहले विवाह-शादी में घर का पूजा करानेवाला ब्राह्मण तथा गांव का नाई (हजाम) गांव-गांव तथा घर-घर में जाकर विवाह-शादी का निमंत्रण देता था। भोज की खबरें देता था। उसके उपरांत विवाह-शादी का कार्ड छपने लगा। धीरे-धीरे कार्ड को लिफाफे में डालकर भेजा जाने लगा। लोग लिफाफा को देखकर तथा उसके ऊपर लिखे आलंकारिक शब्दों को प़ढकर ही शादी-विवाह में जाने का निश्चय कर लेते थे जिसपर लिखा रहता था-भेंज रहा हूं नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को, हे मानस के राजहंस तुम भुल न जाना आने को। उन दिनों गोनु झा के किस्से बहुत प्रचलित थे। एकबार गोनु झा अपने मिर्च के खेत में काम कर रहे थे। मिर्च की फसल पूरी तरह से तैयार था। उनसे मिलने के लिए एक व्यक्ति खेत को रौंदते हुए आया और अपनी धोती के छोर से एक निमंत्रण निकालकर उन्हें दिया जिसमें लिखा था कि कल शाम को गोनु झा को एक भोज में जाना था। उन्होंने अपने चेहरे पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह कहा कि मिर्च का खेत भले ही बर्बाद हुआ पर भोज का निमंत्रण तो मिला। इससे यह पता चलता है कि पुराने विज्ञापन के माध्यम खत का भी कभी विशेष महत्त्व होता था।
आज तो ई-कार्ड का प्रचलन हो गया है। आज के विवाह-शादी, जनेऊ, तिलक, समस्त पर्व-त्यौहार जैसेः होली-दीवाली, दशहरा, जन्मदिन, समस्त धार्मिक आयोजन तथा समस्त मौलिक आवश्यकताओं जैसेः भोजन, वस्त्र, आवास तथा मनोरंजन से लेकर सबकुछ ई-कार्ड से भेजे जा रहे हैं। एकबात सच है कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति तथा भारत के सभी प्रदेशों के मान्यवर राज्यपालों का ऐटहोम निमंत्रणपत्र आदि अवश्य छपता है। वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमणकाल ने तो लगभग दो वर्षों तक विज्ञापन जगत को ध्वस्तप्राय कर दिया था। लेकिन अब धीरे-धीरे विज्ञापन जगत नित्य उन्नति कर रहा है। आज का विज्ञापन जगत तथा आज का विज्ञापन युग पूरी तरह से कामनाओं के उपभोग से कामनाओं की शांति नहीं होती-पर ही आधारित है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज का विज्ञापन जगत तथा आज का विज्ञापन युग एक वास्विक विचारधारा बनकर कार्य कर रहा है।
भारतीय राजनीति में केन्द्र सरकार से लेकर सभी राज्य सरकारें पूरी तरह से विज्ञापन को अपनाये हुए है। आज का सोसल मीडिया तो इससे सबसे अधिक प्रभावित है। वर्तमान सूचना प्रौद्य़ोगिकी का युग तो वैश्वीकृत बन चुका है जिसे ग्लोबल विलेज कहा जाता है जिसमें विज्ञापन को विज्ञान और कला दोनों माना गया है। अध्ययन करने पर पता चला कि विज्ञापन का आरंभ ५५० ईसा पूर्व से है। समाचारपत्रों में विज्ञापन की शुरुआत १७वीं सदी से इंग्लैण्ड के साप्ताहिक समाचारपत्रों से हुई जिसमें पुस्तकों तथा दवाइयों का विज्ञापन प्रकाशित होता था। प्रâांस में १८३६ में समाचारपत्रः लॉ प्रेस ने पहली बार भुगतान को लेकर विज्ञापन छापा। अमरीका में इसकी शुरुआत मेल विज्ञापन के रुप में हुआ। अमरीका का पहला विज्ञापन एजेंसी १८४१ में बोस्टन में खुली जिसका नाम था-वालनी पाल्मर। २०वीं सदी के दूसरे दशक में रेडियो का प्रसारण आरंभ हुआ जो बिना विज्ञापन के आरंभ हुआ। लेकिन जैसे-जैसे रेडियो की लोकप्रितया बढी तो उनमें विज्ञापन का आरंभ प्रायोजित कार्यक्रम के रुप में हुआ। कालांतर में १९५० के दशक में टेलीविजन पर छोटे-छोटे टाइम स्लॉट पर विज्ञापन आने लगा। १९६० के दशक में विज्ञापन जगत में क्रांतिकारी बदलाव आया। पहली जुलाई,१९४१ में पहला टेलीविजन विज्ञापन अमरीका में सांस्कृतिक सामंजस्य के एक साधन के रुप में टेलीकास्ट हुआ। भारत में ३०मई,१८२६ में हिन्दी का पहला समाचारपत्र उदन्त मार्तण्ड कोलकाता से प्रकाशित हुआ जिसमें छपनेवाले विज्ञापन वर्गीकृत तथा घोषणाओं के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं की हुईं। १८६० के दशक में मद्रास (आज का चेन्नई) में दी जेनेरल ऐडवरटाइजर एण्ड जर्नल ऑफ कॉमर्स नामक चार पृष्ठों का एक समाचारपत्र प्रकाशित हुआ जिसमें कुल चार पृष्ठ विज्ञापन का रहा।
भारत में विज्ञापन को आगे बढाने में भारतीय फिल्मजगत का भी बेजोड देन है। भारतीय सिनेमा के जन्मदाता दादा साहेब फाल्के ने १९१३ में अपनी पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र का निर्माण किया। १९२० से विज्ञापन जगत आधुनिकता में प्रवेश कर गया है। आधुनिक विज्ञापन ने वर्षः२०२३ में तो पाश्चात्य के चकाचौंध को अपने प्रचार का मुख्य केन्द्र बनाकर लाइफ स्टाइल, फैशन, डिजाइन तथा सभी प्रकार के मनोरंजन आदि जैसे समस्त संसाधनों को खूब बढावा दे रहा है और अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता में चारचांद लगा रहा है।
-अशोक पाण्डेय

महिलाओं का खतना…

कुछ देशों में महिलाओं का खतना प्रतिबंधित है, वहीं कुछ देशों में आज भी यह हो रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में बोहरा समुदाय के मुस्लिमों में महिलाओं का खतना किया जाता है। मिस्र ने साल २००८ में महिलाओं का खतना प्रतिबंधित कर दिया था लेकिन आज भी वहां इस तरह के मामले दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। बहरीन से वापस लौटते वक्त पोप प्रâांसिस ने महिलाओं के अधिकारों से जुड़े एक सवाल के जवाब में इस दर्दनाक प्रथा का जिक्र किया।

पोप प्रâांसिस ने कहा कि महिलाओं के खतना की प्रथा ‘अपराध’ है। उन्होंने कहा कि महिलाओं के अधिकारों, समानता और अवसरों के लिए लड़ाई जारी रहनी चाहिए। लंबे समय से महिलाओं के खतना की प्रथा पर दुनिया में बहस चल रही है। इस्लाम में आमतौर पर पुरुषों का खतना किया जाता है लेकिन कुछ देशों में महिलाओं के भी खतना की प्रथा है। अंग्रेजी में इसे ‘फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन’ (इउश्) कहा जाता है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, रूढ़िवादी मुस्लिमों में खतना के बाद महिलाओं को ‘शुद्ध’ या ‘शादी के लिए तैयार’ माना जाता है।

पोप ने कहा कि क्या आज हम दुनिया में युवतियों के साथ इस त्रासदी को नहीं रोक सकते? यह भयानक है कि आज भी यह प्रथा अस्तित्व में है, जिसे मानवता रोक नहीं पा रही है। यह एक अपराध है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, एफजीएम अप्रâीका और मिडिल ईस्ट के करीब ३० देशों में केंद्रित है। लेकिन दूसरी जगहों पर अप्रवासी आबादी भी इस प्रथा का पालन करती है। यूएन का कहना है कि इस साल ४० लाख से अधिक लड़कियों पर एफजीएम से गुजरने का खतरा मंडरा रहा है।

. पोप प्रâांसिस ने महिलाओं के खतना की प्रथा को बताया अपराध

. दुनिया में हर साल लाखों मुस्लिम महिलाएं दर्दनाक प्रथा से गुजरती हैं

. भारत में बोहरा मुस्लिम समुदाय में किया है महिलाओं का खतना

ताकि उनकी सेक्शुअल इच्छाएं दबाई जा सकें…

१४ वां आदिवासी युवा आदान-प्रदान कार्यक्रम का समापन

त् आदिवासी क्षेत्र के विकास के लिए प्रधानमंत्रीजी की योजनाओं का लाभ लेने पर राम कुमार पाल ने दिया जोर

त् उचित मार्गदर्शन से ही युवा देश की मुख्यधारा से जुड़कर देश की तरक्की में करेंगे सहयोग : कृपाशंकर सिंह