साहित्य

ठंडी दीवारें

आकर्षण है। हम दोनों शाम के ताँबा रंगे सूर्य को उसमें डूबते हुए देखते और फिर जब चाँद की टुकड़ी दूसरी तरफ से उसकी लहरों में नाचने लगती, ”हमारी बातें समाप्त हो जातीं और हम उसकी ओर देखते ही रहते। चिनाब के किनारे चाँदनी रात के जादू का मैं बयान नहीं कर सकती।” और यह कहकर कान्ता ने एक लम्बी आह भरी, जैसे उसके अन्दर से कुछ धुआँ-सा बाहर निकला हो। उसने अपने होंठों को जीभ से तर किया। सन्तोष की आँखें कान्ता के चेहरे पर गड़ गयीं जिसमें उसने पहली बार खुशी की थोड़ी-सी चमक देखी थी। वह अवाक् बैठी कान्ता की बात सुनती रही।
”चिनाब को तो वर्षा में देखना चाहिए जब उसका दूसरा किनारा ही नहीं दिखाई पड़ता। गढ़गढ़ करती, मटियाले पानी की फुँफकारती लहरें और उन पर तैरते झाग के गोले… इस दृश्य का केवल देखने वाला आनन्द उठा सकता है। छोटी होते हुए भी मैं पर्वों और बैशाखी को चिनाब पर जाया करती थी पर तब मेरी सूझ बच्चों जैसी थी। अब चिनाब की लहरों के साथ मेरी छाती में भी भाव-उछाल उठते और मैं उन पर मोहित हुई, उनमें बँधी हुई कई बार यहाँ पहुँच जाती। फिर जब निसार अहमद मेरे साथ होता, उन पलों का तो कहना ही क्या!”
कान्ता ने चुन्नी से पलकें पोंछ लीं, उनके कोनों में नमी-सी उभर आयी थी। सन्तोष के लिए यह भी आश्चर्यजनक था कि कान्ता का पथरीला चेहरा रो सकने की सामर्थ्य भी रखता है। ”एक दिन रहमत बीबी ने जिसे मैं भी अम्मा कहने लगी थी, मुझे अपने पास बैठाकर बड़े प्यार से कहा, ”अब मैं ही तेरी अम्मा हँ। पहली माँ की तू समझ, वफात (मौत) हो चुकी है। तेरे लिए मेरा भी कुछ फर्ज है। अब मैं तुझे इस तरह और नहीं रख सकती।” मैं क्या कहती! चुप रही। अम्मा इस बीच मेरी तरफ ध्यान से देखती रही। मेरी आँखों के आगे कई पुरानी और नई फिल्में चल रही थीं। अम्मा ने ही मेरी चुप्पी को तोड़ा, ”अगर तुझे एतराज न हो…” उसने प्रश्नवाचक नजरें मुझ पर फेंकी। मेरी छाती धकधक करती रही। ”मैं तुझे अपने से अलग नहीं कर सकती। यह खुदा ने मोह भी क्या चींज बनायी है? तेरा निकाह मैं निसार अहमद के साथ करना चाहती हँ। तुझे कबूल है?”
”मैं खुदा से और क्या माँग सकती थी! चुप रही। परन्तु मेरी आँखों से अम्मा को जवाब मिल गया। और, सन्तोष, तूने यह भी कभी नहीं देखा होगा कि एक ही औरत एक समय माँ भी हो सकती है और सास भी, एक ही आदमी अब्बा भी हो सकता है और ससुर भी। मेरा निकाह जिस धूमधाम से उन्होंने किया, वह मैं तुझे क्या बताऊँ। शायद ही बयान कर सकूँ।”
सन्तोष को कान्ता के चेहरे पर एक रोशनी-सी बिखरी दिखाई दी। ईश्वरदास एकदम चौंककर उठा। बाहर दरवाजे को किसी ने जोर से खटखटाया था। पर उसे कोई भी दिखाई न दिया। साये गहरे होने लगे पर ताप अभी भी कम न हुआ था। उसकी आँखों से नींद भी नहीं गयी थी। मोहनलाल एक दिन उससे कहने लगा, ”भाई साहब, आपसे एक सलाह लेनी है। कान्ता का क्या करें? वह हर समय उदास रहती है, किसी से बोलती नहीं। उसकी माँ हर समय खीझती रहती है।”
ईश्वरदास उनके घर जाकर बैठा ही था कि पास खड़ी मायावन्ती बिलख पड़ी, ”भाई साहब, परमात्मा से हमने माँगा तो यही कुछ था पर उसे हमारी माँग ही ठीक समझ नहीं आयी। हे भगवान! कहीं यह लड़की मर ही जाती। नहीं तो यह बरामद ही न होती और हमें बता देते कि कान्ता फसादों में ही मर गयी है!” इतना कहकर वह फिर रोने लगी। उसे धैर्य देते हुए ईश्वरदास ने कहा, ”बहन, भगवान के काम के आगे किस का जोर है? इसमें ही भला होगा। हाँ आप कहें, भाई साहब, क्या पूछने लगे थे?” उसने मोहनलाल की ओर मुड़ते हुए कहा।
”मैंने सोचा था कि इसको कहीं ब्याह कर इसका जीवन नए सिरे से शुरू किया जाऐ पर कोई इससे विवाह करने को तैयार ही नहीं होता। जिसको एक बार पता लगता है कि इसे पाकिस्तान से आठ साल बाद बरामद किया है, वह दोबारा इस तरफ कान भी नहीं करता। किसी को इस बात पर जरा भी लिहाज नहीं आता कि इसके विवाह पर हम बहुत-कुछ देने को तैयार हैं। आप ही कोई घर बताएँ।” मोहनलाल ने निराश स्वर में कहा।
”आप सही कहते हैं। मैं आपके दुख को समझता हँ,” ईश्वरदास ने बात बदलते हुए कहा, ”किया क्या जाए! हमारा सारा समाज बेशक दागी पड़ा हो पर किसी अबला की चुन्नी पर निशान भी हो तो कोई उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। आप कहेंगे तो सही कि ईश्वरदास कैसी पागलों जैसी बातें करता है पर मैं कहँगा कि अगर हमें उन्हें स्वीकार ही नहीं करना था, तो किस मुँह से हम सरकार को उधर रही स्त्रियों और लड़कियों को बरामद करने को कहते है हमने इनको वहाँ-वहाँ से तो उखाड़ लिया जहाँ वे कई वर्षों में जैसे-तैसे अपनी जड़ें जमाने में सफल हो पायी थीं पर हम इनको इधर लगाने को तैयार नहीं।”
मोहनलाल ने ईश्वरदास की बात की हामी भरी और उसके मुँह से एक ठण्डी साँस निकल गयी।
मायावन्ती की आँखों से आँसू बहने लगे और वह उन्हें दुपट्टे से सुखाकर कहने लगी, ”पर अगर यह कहीं अब मर ही जाए तो मैं सुखी हो जाऊँ। हे भगवान, मैं तो जल गयी हूँ। मेरा कलेजा कोयला हो गया है। पैदा ही ना होती कान्ता की बच्ची। किस जनम का बदला लिया है हमसे?”
ईश्वरदास उनको धैर्य देता हुआ उठ खड़ा हुआ और चलते-चलते कहने लगा, ”पर, बहन, यह बात भूलकर भी कान्ता के सामने न कहना। बता, इसमें उसका क्या अपराध है? मैं भी कोई लड़का ढूढ़ूँगा, आप भी ढूँढ़ो, मिल-जुलकर कोई-न-कोई तो मिल ही जाएगा पर भगवान के नाम पर चन्द्रकान्ता का दिल न तोड़ना। आपको क्या पता, उस पर क्या बीत रही है! कभी उसके दिल की गहराइयों में भी झाँककर देखा है?” और वह जब कमरे से बाहर निकलने लगा, कान्ता उसे सामने से आती हुई मिली। उसे उसके पथराये हुए चेहरे पर तरस आ गया और उसने सहानुभूति से पूछा, ”क्या बात है, बेटी? क्या कर रही हो?” कान्ता का चेहरा और रूखा हो गया। वह कुछ न बोली। ईश्वरदास को उसकी आँखों में कई सूखे हुए आँसू लटकते नजर आये जैसे कि उसने उनकी सारी बातचीत सुन ली हो।
जब ईश्वरदास की आँख खुली, शाम के साये गहरे होने लगे थे और गरमी का ताप घट गया था। उसने उठकर कमरे का एक चक्कर लगाया और फिर अपनी जगह आकर बैठ गया। आज उसका दिमाग कुछ और नहीं सोच पा रहा था। वह फिर वहीं बहाव में बह गया। चन्द्रकान्ता की जीभ से तभी ताला खुलता जब वह सन्तोष के पास आती। ईश्वरदास की हमदर्दी ने उसका मन जीत लिया था। वह अपने दु:ख उनके सामने कह देती और जो बात उससे न कर सकती, वह सन्तोष से कर लेती। एक दिन वह सन्तोष के पास बैठी अपने घावों से पपड़ी उखाड़ बैठी और उनका असली रूप उसे दिखाने लगी।
”पिछले दो साल में जबसे मैं यहाँ आयी हँ, एक रात भी मैं आराम से नहीं सो सकी। दिन में हर समय उदासी के इस्पाती परदे की ओट में निसार अहमद खड़ा मुझसे बातें करता रहता है, जिसे केवल मैं ही सुन सकती हँ। रात को सपनों में वह मेरी बाँहें पकड़कर मुझे अपने साथ ले जाता है और चिनाब के किनारे की याद दिलाता है। इससे भी बढ़कर मेरे नईम और सलमा रो-रोकर मुझे आवाजें देते रहते हैं। उनके उतरे हुए चेहरों को मैं देख नहीं सकती। मैं माँ हूँ, चाहे चन्द्रकान्ता होऊँ या सईदा ख़ातून। इससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। ममता मेरी छाती में खींचातानी करती है, ममता मेरी आँखों को नम कर देती है, पर उसे किसी ने तोड़कर रख दिया है। बता तू मेरे लिए

कुछ नहीं कर सकती?”
सन्तोष ने चुन्नी मुँह में डाल ली और ठंडी साँस को अन्दर रोककर उसकी बात सुनती रही।
”यह बात आज मैं तुझे बताने लगी हूँ, यह मानकर कि दुनिया में तुझे छोड़कर इसका कभी किसी को पता नहीं लगेगा। मेरे खाविन्द निसार अहमद ने जो प्यार मुझे दिया, उसे इस जिन्दगी में तो मैं कभी भूल ही नहीं सकती। हमारी शादी के एक साल बाद हमारे घर नईम की पैदाइश हुई और उसके डेढ़ साल बाद सलमा मेरी बेटी की। हाय, अगर कभी मैं तुझे अपना जोड़ा दिखा सकती! फिर तू कहती, ”सईदा, जालिम! तू ऐसे खूबसूरत और प्यारे बच्चे छोड़ इधर कैसे आ गयी?” वैसे तो उस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं पर मैं तुझे बताने का यत्न जरूर करूँगी।
सलमा होने के बाद मेरे अब्बा की, खुदा उनकी रूह को जन्नत नसीब करे, वफात हो गयी थी। इसलिए निसार अहमद जैलदार बन गया। हमारी जमीन काफी थी। हमारे सारे इलाके में बड़ा रसूख था और चौधरी निसार अहमद का नाम हर तरफ इज्जत से लिया जाता था। सहज में कोई बड़े-से-बड़ा अफसर भी उन्हें नाराज नहीं कर सकता था। अपने इलाके की वह इज्जत-आबरू थे। यही कारण है कि जब कभी पाकिस्तान की पुलिस लड़कियाँ बरामद करने के लिए छापे मारती, वह हमारे घर की ओर मुँह करने का साहस भी न करती। उन्होंने मुझे स्वयं कई बार बताया कि ‘सिविल एंड मिलिटरी गजट’ और ‘नाए वक्त’ में मेरी बरामदी में मदद करने वाले को पाकिस्तान गवर्नमेंट ने एक हजार रुपया इनाम देने का एलान किया है। उन्होंने मुझे कई बार बड़े प्यार से भी पूछा कि क्या मैं हिन्दुस्तान में अपने माँ-बाप के पास जाना चाहती हूँ? अगर मैं चाहती तो वह खुद ही सरहद तक मुझे छोड़ जाते। जब कभी वह ऐसी बात कहने लगते, मैं उनके मुँह के आगे हाथ रखकर बिलखने लगती और कहती, ”अब शायद मैं आप पर भार हो गयी हँ। आप मुझे रखने को राजी नहीं। क्या आप मुझे नईम और सलमा की खातिर भी नहीं रख सकते?” वह मुझे सीने से लगा लेते और हम एक लम्बे बोसे में यह सारी बात भूल जाते।
पर एक दिन साफ आसमान में एक काली स्याह अँधेरी आयी। गाँव में शोर मच गया कि पुलिस की बहुत-सी गारद आयी है और साथ में पुलिस कप्तान भी है। उसके साथ हिंदुस्तानी पुलिस अफसर भी हैं। यह पार्टी हमारे घर के आगे पहुँची। उन्होंने पूछा, ”चौधरी साहब कहाँ हैं? यह बात अभी उनके मुँह में ही थी कि निसार अहमद भी बाहर से आ गया। बस, सन्तोष, बाकी की बात तो बताना भी मेरे लिए नामुमकिन है। मेरे खाबिन्द की एक बात न मानी गयी। मैंने मिन्नत की कि ‘मैं नहीं जाना चाहती, मुझे न ले जाओ।’ मैंने कहा, ”मेरे तो माँ-बाप मर चुके हैं। यह मेरे दो बच्चे हैं। इनकी तरफ देखो।” मैंने इल्तजा की, ”मैं चौधरी साहब की बीवी हूँ और अपनी मरजी से इनसे निकाह करवाया है।” मैं रोयी, ”चन्द्रकान्ता मर चुकी है और उसमें से मैंने, सईदा ख़ातून ने, जन्म लिया है। आप भूलते हैं।” मैंने नईम को आगे किया, ”आप इसकी शक्ल को मेरे से मिलाकर देखो। क्या यह आपको मेरा लख्तेजिगर नहीं लगता?” पर वहाँ तो केवल एक जवाब था, ”हम कानून के हाथों मजबूर हैं। हमें पाकिस्तान गवर्नमेंट की सख्त हिदायत है कि आपको वापस हिन्दुस्तान पहुँचाया जाए।”
उस समय सूरज डूब नहीं रहा था, मैं सच कहती हूँ, सन्तोष, उसका इनसानियत के कातिल खून कर रहे थे। वही लाल-काला खून सारे माहौल में बिखर गया था। जिस समय निसार अहमद ने मजबूर होकर मुझे जीप पर चढ़ने में मदद की, वह आप बेहोश होकर गिर पड़ा। रहमत अम्मा ने मेरी बलइर्‍याँ लीं। नईम और सलमा रो रहे थे। उन्हें पुलिस के सिपाही पीछे हटा रहे थे और अम्मा उन्हें तसल्लीr दे रही थी कि उनकी वालिदा कहीं बाहर जा रही है और शीघ्र ही वापस आ जाएगी। पर उन मासूमों के दिल को सच्चाई का अनुभव हो चुका था। मैं खुद उड़-उड़कर बाहर गिर रही थी। अचानक जीप चली और मेरे आगे कयामत का अँधेरा छा गया। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।
इतने में ईश्वरदास की रोटी आ गयी थी। वह चुपचाप खाने लगा। पर एक कौर भी उसके मुँह में नहीं जा पा रही थी। उसका हाथ वहीं रुक गया और वह विचारों के सागर में बह चला। ”पिताजी!” एक दिन सन्तोष ने उससे कहा, ”क्या आप अपने हाथ से मेरा गला दबाकर मुझे मार सकोगे?” वह कहने लगा, ”पागल तो नहीं हो गयी बेटी! भला ऐसा कौन पिता कर सकता है! साफ-साफ कह, क्या कहना चाहती है?” ”ऐसे माँ-बाप भी हैं जिनके अप्रत्यक्ष हाथ अपनी औलादों के गले घोंट देते हैं। कान्ता के दु:ख के हर पक्ष से आप जानकार हैं, मैं उसके लिए आपसे एक दया माँगती हूँ। मेरी विनती है, इनकार न करना। वह मर तो पहले ही रही है, अब आपसे ‘न’ कराकर मरेगी।” ”कुछ बताएगी भी, तोषी?”
”आपसे एक आदमी मिलना चाहता है, मिलाऊँगी मैं।”
”कौन?” ”निसार अहमद! नहीं, नहीं, अब्दुल हमीद।” ”निसार अहमद…वह किस तरह यहाँ आ गया? उसे कान्ता का सन्देश किसने भेजा?” एक ही साँस में कई प्रश्न पूछ लिए ईश्वरदास ने। ”इन सारे प्रश्नों की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उसकी बहन हूँ, समझ लो, मैं ही इसके लिए जिम्मेदार हूँ।” अचानक ईश्वरदास का हाथ घुटने से फिसलकर सामने थाली से जा टकराया और उसका किन्ाारा उसे चुभ गया। उसने धीरे-से हाथ को मला और सिर को झटककर फिर खाना खाने लगा। आज वह कैसे इन विचारों में घिरा हुआ था, वह स्वयं पर हैरान हो गया।
ईश्वरदास को मजिस्ट्रेट की कचहरी में पेश किया गया। उसे हथकड़ी लगी हुई थी और पुलिस ने उस पर फौजदारी का मुकदमा दायर किया था। उसे उसका अपराध बढ़कर सुनाया गया, जिसका सार यह था कि उसने कूचा नबीकरीम की चन्द्रकान्ता नाम की एक लड़की को वकील होने की हैसियत से जिला गुजरात की सईदा खातून होने की पुष्टि की है और इस तरह उसे धोखे से परमिट दिलवाया है। इस प्रकार चन्द्रकान्ता के पाकिस्तान भाग जाने की साजिश में उसका हाथ है। उसने देखा कि सामने मोहनलाल, मायावन्ती और सोहनलाल खड़े थे। और भी बहुत-से लोग मुकदमा सुनने आये हुए थे। मोहनलाल कह रहा था, ”देखो यारो, इस तरह का पड़ोसी तो भगवान दुश्मन को भी न दे। हमारी लड़की को इसने पाकिस्तान भगा दिया है। यह हिंदुस्तानी है या देशद्रोही?” मायावन्ती मुँह ढक कर सुबक रही थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मोहनलाल चुप था और उसके चेहरे पर चिन्ता के निशान उभरे हुए थे।
सन्तोष बड़े धैर्य से खड़ी सारी कार्यवाही सुन रही थी। ईश्वरदास ने अपने हक में कुछ भी न कहा। मजिस्ट्रेट ने उसको दो वर्ष की कैद की सजा सुना दी।
और अब ईश्वरदास की आँख तब ही खुली जब वार्डन रोटी के बरतन उठाने आया। उसके मन में कोई चिन्ता न थी, कोई अफसोस न था। जेल की कोठरी की गरमी, यह बेस्वाद रोटी, यह सलाखों वाली खिड़की जिसके पीछे वह बन्द था। सब कहीं पीछे रह गये थे। उसे फिर निसार अहमद का खिला हुआ चेहरा दिखाई दिया जिसके प्यार के आँगन में सईदा खातून की खुशी का पौधा फिर से लग गया था। वार्डन को बरतन पकड़ाते हुए वह उठ खड़ा हुआ और उसने सन्तोष से एक डकार ली।
-गुरमुख सिंह जीत

रजाई

रजाई

मास्टर ने देखा, उससे कई गुना अधिक हैसियत वाले लोग डिपो से राशन ले रहे हैं। परंतु वे तो दुकानदार थे, कोई नौकरी-पेशा तो न था। बेचारी सरकार के पास भी तो उनकी स्वयं लिखी हुई बहियों के अतिरिक्त आय मापने का कोई यंत्र अथवा साधन न था। मास्टर झूठ नहीं बोल सकता। उसे हर कोई भद्र पुरुष कहता है। कई व्यंग्य से भी-जैसे दुश्चरित्र या बेईमान होना कोई गुण होता है।…मास्टर कानून का पूरा मानने वाला था। पढ़े-लिखे आदमी की कानून के उल्लंघन की वैसे भी अधिक सजा मिल सकती है।

छुुुट्टी के समय जब स्कूल-मास्टर स्कूल से बाहर निकलता, तो वह लड़कों की एक बाढ़ में होता। बहुधा उसे अनुभव होता कि लड़कों की बाढ़ में एक बंधन है। आज उसने सोचा यदि लड़कों का प्रवाह सदैव इसी प्रकार न चलता रहे, तो उसका जीवन भी सूखी नदी के रेतीले तटों पर व्यर्थ पड़ी नौका के समान नीरस होकर रह जाय। पुनः उसने सोचा, वास्तव में वह नौका ही है। प्रति वर्ष विद्यार्थियों के समूह पर-समूह परीक्षा-रूपी किनारों से पार उतारता है। उसकी समझ में न आया, कि विद्यार्थी जल-प्रवाह और यात्रियों का संघ दोनों वस्तुएँ कैसे बन सकते हैं? आखिर प्रवाह तो गतिशील ही था, जिसके सहारे उसकी टूटी-फूटी जीवन-नौका तैरकर एक काम किये जा रही थी, चाहे कठिन-से-कठिन गणित के प्रश्न मिनटों में हल कर लेने वाली उसकी बुद्धि उस अदृष्ट प्रवाह को समझ सकने में असमर्थ थी।

मास्टर ने सहज में ही अनेकों परिचितों की सलमों का उत्तर हाथ जोड़ कर दिया। अनेकों की नमस्ते, सत-श्री-अकाल, जय राम जी की झुक-झुककर ब्याज समेत लौटाई : परंतु भीतर से उसे कोई चिंता खाये जा रही थी। बाजार में तो वह यंत्रवत क्रियाएँ करता चला जा रहा था। सहसा एक भागी आ रही गाय उसे बाह्य चेतना में ले आई। वह चकित था कि वह किसी से क्यों नहीं टकराया, अथवा एक ओर वह गहरे नाले में क्यों न जा पड़ा।

मोड़ घूमते समय उसने कबाड़ी की दुकान पर एक रजाई लटकते देखी। मन ही-मन काँपकर उसने इधर-उधर देखा, कहीं उसे किसी ने पुरानी रजाई की ओर ललचाई हुई नजरों से देखते हुए न देख लिया हो।…वह तेजी से मोड़ मुड़ गया।

मास्टर पाँच बच्चों का पिता है। आजकल वह इन्हें पाँच गलतियाँ कहता है। पुराने जर्मन और आजकल के रूस में शायद उसकी पत्नी को अधिक बच्चे पैदा करने का मैडल और पुरस्कार मिलता। वह सोच रहा था कि कैसे परिस्थितियाँ गलतियों को शुद्धियाँ और शुद्धियों को गलतियाँ बना देती हैं। काश कि परिस्थितियाँ हर व्यक्ति के बस में होतीं।…परिस्थितियों की कुंजी केवल धनिकों के हाथ में ही न होती।

पाकिस्तान से शरणार्थी होकर आए तीन संबंधी भी उसके पास रहते थे। कभी उन्होंने भी उसके कठिन समय में उसकी सहायता की थी, जब वे स्वयं सुखी थे। मास्टर का वेतन अब सब कुछ मिलाकर एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपये है। बड़ा वेतन है।…केवल वह आटा जो उसे सहायता दिये जाने के समय दो रुपये तेरह आने मन था, अब तीस रुपये मन बिकता है। परंतु मास्टर का वेतन तो उचित है। एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपये, प्रोवीडेंट फंड काटकर। अतएव वह उन्हें कठिन समय में कैसे आश्रय न देता?….कृतघ्न न कहलाने का भी तो मूल्य होता है न।….

राशन-डिपो पर कई लोग ठहरे थे, परंतु मास्टर साहब को डिपो से भी कुछ नसीब न होता था। मास्टर साहब का वेतन एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपये है। निर्दिष्ट रकम से एक रुपया अधिक लेने वाला भी डिपो से सस्ता राशन लेने का अधिकारी नहीं और मास्टर साहब तो पूरे ढाई रुपये अधिक ले रहे थे। उसके साथी किराएदारों में एक बैंक क्लर्क भी था। वह एक सौ पन्द्रह वेतन पाता था। उसकी पत्नी और वह-बस यही उसका परिवार था। उसको राशन मिलता था। परंतु मास्टर जी का परिवार भी तो वेतन की तरह बड़ा था। अतएव वह किसी छूट का अधिकारी नहीं था।

मास्टर ने देखा, उससे कई गुना अधिक हैसियत वाले लोग डिपो से राशन ले रहे हैं। परंतु वे तो दुकानदार थे, कोई नौकरी-पेशा तो न था। बेचारी सरकार के पास भी तो उनकी स्वयं लिखी हुई बहियों के अतिरिक्त आय मापने का कोई यंत्र अथवा साधन न था। मास्टर झूठ नहीं बोल सकता। उसे हर कोई भद्र पुरुष कहता है। कई व्यंग्य से भी-जैसे दुश्चरित्र या बेईमान होना कोई गुण होता है।…मास्टर कानून का पूरा मानने वाला था। पढ़े-लिखे आदमी की कानून के उल्लंघन की वैसे भी अधिक सजा मिल सकती है। मास्टर तो देशभक्त भी है। अपने या अपने आदमियों के कारण वह देश और जाति की हानि सहन नहीं कर सकता।

मास्टर निकल गया-सब कुछ देखता। उसे मार्ग में पुनः रजाई का ध्यान आया। नई रजाई के लिए कम से कम बीस रुपये की आवश्यकता है। हिसाब लगाया-ढाई मन आटा, तीस दूना साठ और पंद्रह-पचहत्तर रुपये, घी बनस्पति बारह रुपये, ईंधन पन्द्रह रुपये और बड़ी रकम उसे बाद में याद आई-किराया तीस रुपये, दूध-चाय के लिए तेरह रुपये और आगे इसी प्रकार। कुल जोड़ एक सौ छियासी रुपये। बजट में प्रति मास लगभग साठ रुपये का घाटा। उसे बजट को चैलेंज करना चाहिए। परंतु उसको गृह-विज्ञान के अनुसार नई पुस्तकों एवं पत्रिकाओं पर व्यय की जा रही सात रुपए की राशि के सिवा कुछ अनावश्यक न मिला। वह मन-ही-मन इस खर्च पर लकीर खींचने लगा था, परंतु उसे अनुभव हुआ कि वह खर्च उसकी खुराक पर हो रहे खर्च से भी अधिक आवश्यक है।

आखिर उसने सोचा-‘मैं मुख्याध्यापक की आज्ञा से एक ट्यूशन रखूँगा। तीस की आय बढ़ जाएगी। तीस का व्यय जैसे-तैसे कम करूँगा। परंतु रजाई के लिए बीस रुपए कहाँ से आएँगे?…रजाई सर्दी के लिए बहुत आवश्यक वस्तु है।…अतिथियों को अलग-अलग चारपाई और बिस्तर देना भी अत्यावश्यक था। तीन लड़कियाँ इकट्ठी सोती थीं। एक ही चारपाई और एक ही रजाई में सोने से कद नाटे हो जायेंगे। लड़कियों के शरीर नाटे हो जाने से उन्हें आज के संसार में पहले ही कोई नहीं पूछता। कल उसने अपनी घरवाली को उनमें से बड़ी को अलग सुलाने के लिए कहा था।

‘थोड़ी चारपाइयाँ हैं कैलाश? फिर इन्हें अलग-अलग क्यों नहीं लेटने को कहती तुम?’

कैलाश ने विनम्र उत्तर दिया था-‘चारपाई तो एक और है परंतु और रजाई नहीं है। अभी बिल्लू भी मेरे साथ ही सोता है।’

‘बीस रुपए की रजाई’ ! पहले ही बजट में घाटा है। तीस की ट्यूशन, तीस खर्च में से कम करने ही पड़ेंगे। परंतु रजाई के लिए बीस और कहाँ से आएंगे? उसे स्मरण हुआ कि उसने परसों ही अपनी पुस्तकें और रद्दी बेचकर सात रुपए बारह आने पाए थे। परंतु रजाई के लिए बीस रुपये!…ओह !…कबाड़ी से पुरानी रजाई! हाँ ठीक है, कल पूछा जाएगा।

कई दिन वह प्रातः समय की ताक में रहा। दिन में वह कबाड़ी से पुनः पूछने का साहस न कर सका। एक दिन रात के समय गया बाजार बंद था। बेचारा ‘नेशनबिल्डर’ कौम का उस्ताद निराश लौट गया। बनाने वाला स्वयं बनाए जाने वालों के हाथों से क्या बन रहा था।…

उसने पुनः विचार किया-आखिर प्रातः ही दाँव लगाकर काम बनेगा। निगोड़ी रजाई भी थी जिसे कोई खरीदता ही न था। किसी के सामने खरीदकर अपमान होता था-यदि उसका नहीं, तो अध्यापकों की श्रेणी का। परंत राष्ट्र का बेचारा अध्यापक क्या कर रहा था? वह किसी से क्या छिपा रहा था? उसने पुनः विचार किया-वह ‘इज्जत’ को आँच न आने देगा।

रविवार का दिन था-छुट्टी का दिन। वह अपने बड़े लड़के को साथ लेकर उस दुकान पर गया। रजाई पूर्ववत वहीं पड़ी थी। वह एक ही छलाँग में दुकान में चला गया। सात रुपये में सौदा पट गया। रुपये देकर वह शीघ्र वापस लौट आया। दस कदम ही चला होगा कि किसी ने आवाज दी-‘मुर्दों से उतारी हुई रजाई खरीद ली है।’

उस्ताद घूमकर देखे बिना न रह सका। कहने वाला एक दरजी था। पास ही मास्टर का एक शिष्य था, जिसने आज से उसके घर पढ़ने आना था। उसने भी मास्टर के पास आकर कहा-‘यह तो मुर्दों से उतारी गई रजाइयाँ बेचता है, मास्टर जी?’

मास्टर सच का सा झूठ बोला-‘हाँ बेटा, परंतु किसी आवश्यकता वाले की आवश्यकता तो पूरी हो जायेगी।’

कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि जिस से संशय हो सकता था कि उसने रजाई किसी अन्य व्यक्ति के लिए खरीदी है। आखिर यदि यह झूठ भी था तो धर्मपुत्र युधिष्ठिर के बोले झूठ से बुरा न था।

दिन-भर रजाई धूप में पड़ी रही। शाम हो जाने पर रजाई कमरे में लाई गई। दीपक चलने के बाद वही लड़का पढ़ने के लिए आ गया। उसने रजाई पड़ी हुई देखकर नमस्ते कहने के बाद पूछा-‘क्यों मास्टर जी, यह वही रजाई है न?’

मास्टर में दूसरी बार झूठ बोलने की सामर्थ्य न थी। उसने कहा-‘वही है बेटा, परंतु आज मैं तुझे पढ़ा न सकूँगा, मेरी तबीयत खराब है, तू कल आ जाना।’

सचमुच उसकी तबीयत खराब थी, लड़का वापस लौट गया।

मास्टर ने रसोई में काम कर रही घरवाली से कहा-‘कैलाश, नई रजाई मुझे दे दे। मेरे वाली पहली रजाई लड़कियों को दे देना। हाँ, सच-गोमती को अलग सुलाना।’

‘क्यों आप खाना न खाएँगे?’ -कैलाश ने रजाई पैरों पर ओढ़ते हुए कहा।

‘नहीं’ -मास्टर ने कहा और मुर्दों से उतारी रजाई अपने पैरों पर खींच ली। कितने समय तक वह सोचता रहा कि कौन मुर्दों से रजाई उतार लेता है और कौन जीवितों से।…वह अशांत था।…

-सुजान सिंह 

जुर्माना​

जुर्माना

उस दिन वह थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गई थी। उसी वक्त दारोगाजी अपने इक्के पर आ रहे थे । वह कितना कहती रही हजूर आली; मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के बड़े लेकर खा रही थी। उसी वक्त दारोगा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहीं छिपा रहता है! जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना (Jurmana)  कितना करता है – अल्ला जाने! आठ आने से बढ़कर एक रुपया न हो जाये। वह सिर झुकाये वेतन लेने जाती और तखमींने से कुछ ज्यादा ही कटा हुआ पाती। काँपते हुए हाथों से रुपये लेकर आंखों में आँसू भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दरोगा के सामने उसकी सुनेगा कौन?


ऐसा शायद ही कोई महीना जाता कि अलारक्खी के वेतन से कुछ जुर्माना न कट जाता। कभी-कभी तो उसे ६ के ५ ही मिलते, लेकिन वह सब कुछ सहकर भी सफाई के दारोगा मु. खैरात अली खाँ के चुंगल में कभी न आती। खाँ साहब की मातहती में सैकड़ों मेहतरानियाँ थी। किसी की भी तलब न कटती, किसी पर जुर्माना न होता, न डाँट ही पड़ती। खाँ साहब नेकनाम थे, दयालु थे। मगर अलारक्खी उनके हाथों बराबर ताड़ना पाती रहती थी। वह कामचोर नहीं थी, बेअदब नहीं थी, फूहड़ नहीं थी, बदसूरत भी नहीं थी; पहर रात को इस ठण्ड के दिनों में वह झाड़ू लेकर निकल जाती और नौ बजे तक एक-चित्त होकर सड़क पर झाडू लगाती रहती। फिर भी उस पर जुर्माना (Jurmana) हो जाता। उसका पति हुसेनी भी अवसर पाकर उसका काम कर देता, लेकिन अलारक्खी की किस्मत में जुर्माना देना था। तलब का दिन औरों के लिए हँसने का दिन था, अलारक्खी के लिए रोने का। उस दिन उसका मन जैसे सूली पर टंगा रहता। न जाने कितने पैसे कट जायेंगे? वह परीक्षावाले छात्रों की तरह बार-बार जुर्माना की रकम का तखमीना करती ।

उस दिन वह थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गई थी। उसी वक्त दारोगाजी अपने इक्के पर आ रहे थे । वह कितना कहती रही हजूर आली; मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के बड़े लेकर खा रही थी। उसी वक्त दारोगा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहीं छिपा रहता है! जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है – अल्ला जाने! आठ आने से बढ़कर एक रुपया न हो जाये। वह सिर झुकाये वेतन लेने जाती और तखमींने से कुछ ज्यादा ही कटा हुआ पाती। काँपते हुए हाथों से रुपये लेकर आंखों में आँसू भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दरोगा के सामने उसकी सुनेगा कौन?

आज फिर वही तलब का दिन था। इस महीने में उसकी दूध पीती बच्ची को खाँसी और ज्वर आने लगा था। ठंड भी खूब पड़ी थी। कुछ तो ठंड के मारे और कुछ लड़की के रोने-चिल्लाने के कारण उसे रात-रातभर जागना पड़ता था। कई दिन काम पर जाने में देर हो गई थी। दारोगा ने उसका नाम लिख लिया था। अबकी आधे रुपये कट जायेंगे। आधे भी मिल जायँ तो गनीमत है। कौन जाने कितना कटा है? उसने तड़के बच्ची को गोद में उठाया और झाडू लेकर सड़क पर जा पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही न थी। उसने बार-बार दारोगा के आने की धमकी दी – अभी आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लड़की को अपने नाक-कान कटवाना मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर न था; आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, किसी उपाय से न उतरी तो अलारक्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती छोड़कर झाडू लगाने लगी। मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर रोती भी न थी। अलारक्खी के पीछे लगी हुई बार-बार उसकी साड़ी पकड़कर खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर जमीन पर लोट जाती और एक क्षण में उठकर फिर रोने लगती।

उसने झाडू: तानकर कहा – चुप हो जा, नहीं तो झाडू से मारूँगी, जान निकल जायेगी; अभी दारोगा दाढ़ीजार आता होगाष्ठ

पूरी धमकी मुँह से निकल भी न पाई कि दारोगा खैरातअली खाँ सामने आकर साइकिल से उतर पड़ा। अलारक्खी का रंग उड़ गया, कलेजा धक्-धक् करने लगा! या मेरे अल्लाह, कहीं इसने सुन न लिया हो! मेरी आंखें फूट जायँ। सामने से आया और मैंने देखा नहीं। कौन जानता था, आज पैरगाड़ी पर आ रहा है? रोज तो इक्के पर आता था। नाड़ियों में रक्त का दौड़ना बन्द हो गया। झाड़ू हाथ में लिए निःस्तब्ध खड़ी रह गई।

दारोगा ने डाँटकर कहा – काम करने चलती है तो एक पुछल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं छोड़ आई?

अलारक्खी ने कातर स्वर में कहा – इसका जी अच्छा नहीं है हुजूर घर पर किसके पार छोड़ आती!

‘क्या हुआ है इसको?’

‘बुखार आता है हुजूर!’

‘और तू इसे यों छोड़कर रुला रही है । मरेगी कि जियेगी?’

‘गोद में लिये-लिये काम कैसे करूँ हुजूर!’

‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेती?’

‘तलब कट जाती हुजूर, गुजारा कैसे होता?’

‘इसे उठा ले और घर जा। हुसेनी लौटकर आये तो इधर झाडू लगाने के लिए भेज देना ।’

अलारक्खी ने लड़की को उठा लिया और चलने को हुई, तब दारोगा जी ने पूछा – मुझे गाली क्यों दे रही थी?

अलारक्खी की रही-सही जान भी निकल गई । काटो तो लहू नहीं थर-थर काँपती बोली – नहीं हूजूर, मेरी आँखें फूट जायँ जो तुमको गाली दी हो।

और वह फूट-फूटकर रोने लगी ।

संध्या समय हुसेनी और अलारक्खी दोनों तलब लेने चले। अलारक्खी बहुत उदास थी।

हुसेनी ने सांत्वना दी – तू इतनी उदास क्यों? तलब ही न कटेगी कटने दे । अबकी मैं तेरी जान की कसम खाता हूँ एक घूंट दारू या ताड़ी नहीं पिऊंगा ।

‘मैं डरती हूँ बरखास्त न कर दे मेरी जीभ जल जाय! कहाँ से कहाँष्ठ

‘बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्ला भला करे! कहाँ तक रोयें!’

‘तुम मुझे नाहक लिये चलते हो । सब की सब हंसेगी ।’

‘बरखास्त करेगा तो पूछूँगा नहीं कि किस इलजाम पर बरखास्त करते हो, गाली देते किसने सुना? कोई अन्धेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे और जो कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी के दरवाजे पर सर पटक दूँगा।’

‘ऐसी ही एकता होती तो दरोगा इतना जरीमाना करने पाता?’

‘जितना बड़ा रोग होता है उतनी दवा होती है, पगली!’ फिर भी अलारक्खी का मन शान्त न हुआ। मुख पर विषाद का धुआँ-सा छाया हुआ था। दारोगा क्यों गाली सुनकर भी बिगड़ा नहीं, उसी वक्त उसे क्यों नहीं बरखास्त कर दिया, यह उसकी समझ में न आता था। वह कुछ दयालु भी मालूम होता था। उसका रहस्य वह न समझ पाती थी, और जो चीज हमारी समझ में नहीं आती उसी से हम डरते हैं। केवल जुर्माना करना होता तो उसने किताब पर उसका नाम लिखा होता। उसको निकाल बाहर करने का निश्चय कर चुका है, तभी दयालु हो गया था। उसने सुना था कि जिन्हें फाँसी दी जाती है, उन्हें अन्त समय खूब पूरी मिठाई खिलाई जाती है, जिससे मिलना चाहें उससे मिलने दिया जाता है। निश्चय बरखास्त करेगा।

म्युनिसिपैलिटी का दफ्तर आ गया। हजारों मेहतरानियाँ जमा थी, रंग-बिरंगे कपड़े पहने, बनाव-सिंगार किये। पान-सिगरेट वाले भी आ गये थे, खोंमचेवाले भी। पठानों का एक दल भी अपने असामियों से रुपये वसूल करने आ पहुंचा था। वह दोनों भी जाकर खड़े हो गये।

वेतन-बँटने लगा। पहले मेहतरानियों का नम्बर था जिसका नाम पुकारा जाता वह लपककर जाती और अपने रुपये लेकर दरोगाजी को मुफ्त की दुआएँ देती हुई चली जाती। चम्पा के बाद अलारक्खी का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज अलारक्खी का नाम उड़ गया था। चम्पा के बाद जहन का नाम पुकारा गया जो अलारक्खी के नीचे था ।

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अलारक्खी ने हताश आँखों से हुसेनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगी। उसके जी में आया, घर चली जाय। यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट जाती तो उसमें समा जाती।

एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अलारक्खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब इसकी परवाह न थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।

सहसा अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ी! धीरे से उठी और नवेली बहू की भांति पग उठाती हुई चली । खजांची ने पूरे छह रुपये उसके हाथ पर रख दिये ।

उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीन बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और अबकी तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकण्ड वहाँ खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रुपया वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा, अब क्यों खड़ी है जाती क्यों नहीं? तब वह धीरे से बोली – यह तो पूरे रुपये है। 

खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा ।

‘तो और क्या चाहती है, कम मिलें?’

‘कुछ जरीमाना नहीं है?’

‘नहीं, अबकी कुछ जरीमाना नहीं है ।’

अलारक्खी चली, पर उसका मन प्रसन्न न था। वह पछता रही थी कि दरोगाजी को गाली क्यों दी ।

मधुआ

-आज सात दिन हो गए पीने को कौन कहे –छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है सरकार !’
-तुम झूठे हो। अभी भी तुम्हारे कपड़ों से महक आ रही है।’ -वह.. वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर—कई दिन हुए–अँधेरे में बोतल उड़ेलने लगा था। कपड़ों पर गिर जाने से नशा भी न आया और आपको कहने का… क्या कहूँ सच्चा मानिये। सात दिन—ठीक सात दिन से एक बूँद भी नहीं।’
ठाकुर सरदार हंसने लगे। लखनऊ में लड़का पढ़ता था। ठाकुर साहब भी कभी-कभी वहाँ आ जाते। उनको कहानी सुनने का चस्का था। खोजने पर यही शराबी मिला। वह रात को, दोपहर में, कभी-कभी सवेरे भी आता। अपनी लच्छेदार कहानी सुनाकर ठाकुर का मनोविनोद करता।
ठाकुर ने हँसते हुए कहा–‘तो आज पीयोगे ना?’
‘झूठ कैसे कहूँ। आज तो जितना मिलेगा, सब पीऊँगा। सात दिन चने-चबेने पर बिताए हैं किसलिए।’
‘अद्भुत! सात दिन पेट काटकर आज अच्छा भोजन न करके तुम्हें पीने की सूझी है! यह भी…।’
‘सरकार मौज बहार की एक घड़ी, एक लम्बे दुखपूर्ण जीवन से अच्छी है। उसकी ख़ुमारी में अच्छे दिन काट लिए जाते हैं।’ ‘अच्छा आज दिनभर तुमने क्या-क्या किया है?’
‘मैंने?—अच्छा सुनिए–सवेरे कुहरा पड़ता था, मेरे धुआँसे कम्बल-सा वह भी सूर्य के चारों ओर लिपटा था। हम दोनों मुंह छिपाए पड़े थे।’
ठाकुर साहब ने हंस कर कहा, ‘अच्छा, तो इस मुंह छिपाने का कोई कारण?’ ‘सात दिन से एक बूँद भी गले से न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था! और जब बारह बजे धूप निकली, तो फिर लाचारी थी! उठा, हाथ-मुंह धोने में जो दुःख हुआ, सरकार, वह क्या कहने की बात है! पास में पैसे बचे थे चना-चबेना से दांत भाग रहे थे। कट-कट लग रही थी। परांठे वाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया। घूमते-घूमते अँधेरा हो गया, बूंदे पड़ने लगी, तब कहीं भाग के आप के पास आया।’
‘अच्छा, जो उस दिन तुमने गडरिये वाली कहानी सुनाई थी, जिसमें आसपुâद्दौला ने उसकी लड़की का आँचल भुने हुए भुट्टे के दाने के बदले मोतियों से भर दिया था! वह क्या सच है?’
‘सच! अरे, ग़रीब लड़की भूख से उसे चबाकर थू-थू करने लगी? रोने लगी! ऐसी निर्दयी दिल्लगी बड़े लोग कर ही बैठते हैं। सुना है श्री रामचन्द्र ने भी हनुमानजी से ऐसा ही… ।’ ठाकुर साहब ठठाकर हंसने लगे। पेट पकड़ कर हँसते-हँसते लोट गए। सांस बटोरते हुए सम्हल कर बोले, ‘और बड़प्पन किसे कहते हैं? कंगाल तो कंगाल! गधी लड़की! भला उसने कभी मोती देखे थे, चबाने लगी होगी। मैं सच कहता हूँ, आज तक तुमने जितनी कहानियां सुनाई, उनमें बड़ी टीस थी। शाहज़ादे के दुखड़े, रंगमहल की अभिमानी बेगमों के निष्फल प्रेम, करुण-कथा और पीड़ा से भरी हुई कहानियां ही तुम्हें आती हैं; पर ऐसी हंसाने वाली कहानी और सुनाओ, तो मैं अपने सामने ही बढ़िया शराब पिला सकता हूँ।’
‘सरकार! बूढ़ों से सुने हुए वे नवाबी के सोने से दिन, अमीरों की रंग-रलियां, दुखियों की दर्द-भरी आहें, रंगमहलों में घुट-घुट कर रोने वाली बैगमें, अपने-आप सिर में चक्कर काटती रहती हैं। मैं उनकी पीड़ा से रोने लगता हूँ। अमीर कंगाल हो जाते हैं। बड़े-बड़ों का घमंड चूर होकर धूल में मिल जाता है। तब भी दुनिया बड़ी पागल है। मैं उसके पागलपन को भुलाने के लिए शराब पीने लगता हूँ—सरकार! नहीं तो यह बुरी बला कौन अपने गले लगाता।’
ठाकुर साहब ऊँघने लगे थे। अंगीठी में कोयला दहक रहा था। शराबी सर्दी में ठिठुरा जा रहा था। हाथ सेंकने लगा। सहसा नींद से चौंक कर ठाकुर साहब ने कहा, अच्छा जाओ, मुझे नींद लग रही है। वह देखो, एक रूपया पड़ा है, उठा लो, लल्लू को भेजते जाओ।’ शराबी रूपया उठा कर धीरे से खिसका। लल्लू था ठाकुर साहब का जमादार। उसे खोजते हुए जब वह फाटक पर की बगल वाली कोठरी के पास पहुंचा, तो सुकुमार कंठ से सिसकने का शब्द सुनाई पड़ा। वह खड़ा होकर सुनने लगा।
‘तो सूअर रोता क्यों है?’ कुँवर साहब ने दो ही लातें लगार्इं हैं! कुछ गोली तो नहीं मार दी?–‘ कर्वâश स्वर में लल्लू बोल रहा था; किन्तु उत्तर में सिसकियों के साथ एकाध हिचकी ही सुनाई पड़ जाती। अब और भी कठोरता से लल्लू ने कहा, ‘मधुआ! जा सो रह, नखरा न कर, नहीं तो उठूंगा तो खाल उधेड़ दूंगा! समझा ना?’ शराबी चुपचाप सुन रहा था। बालक की सिसकी बढ़ने लगी। फिर उसे सुनाई पड़ा –‘ले अब भागता है कि नहीं? क्यों मार खाने पर तुला है?’
भयभीत बालक बाहर चला आ रहा था। शराबी ने उसके छोटे से सुन्दर गोरे मुंह को देखा। आंसू की बूँदें ढलक रही थी। बड़े दुलार से उसका मुंह पोंछते हुए उसे लेकर वह फाटक के बाहर चला आया। दस बज रहे थे। कड़ाके की सर्दी थी। दोनों चुपचाप चलने लगे। शराबी की मौन सहानुभूति को उस छोटे से सरल हृदय ने स्वीकार कर लिया। वह चुप हो गया। अभी वह एक तंग गली पर रुका ही था कि बालक के फिर सिसकने की आहट लगी। वह झिड़क कर बोल उठा–
‘अब क्यों रोता है रे छोकरे?’
‘मैंने दिनभर से कुछ खाया नहीं।’
‘कुछ खाया नहीं; इतने बड़े अमीर के यहाँ रहता है और दिन भर तुझे खाने को नहीं मिला?’
‘यही कहने तो मैं गया था जमादार के पास; मार तो रोज़ ही खाता हूँ। आज तो खाना ही नहीं मिला। कुंवर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिनभर साथ रहा। सात बजे लौटा, तो और भी नौ बजे तक काम करना पड़ा। आटा रख नहीं सका था, रोटी बनती तो कैसे! जमादार से कहने गया था।’ भूख की बात कहते-कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया, वह फिर हिचकियाँ लेने लगा। शराबी उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ गली में ले चला। एक गन्दी कोठरी का दरवाज़ा ठेलकर बालक को लिए हुए वह भीतर पहुंचा, टटोलते हुए सलाई से मिटटी की ढिबरी जला कर वह फटे कम्बल के नीचे कुछ खोजने लगा। एक परांठे का टुकड़ा मिला। शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला, ‘तब तक तू इसे चबा, मैं तेरा गढा भरने के लिए कुछ और ले आऊँ –सुनता है रे छोकरे! रोना मत, रोएगा तो खूब पीटूंगा। मुझे रोने से बड़ा बैर है। पाजी कहीं का, मुझे भी रुलाने का …..।’
शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रूपया था। बारह आने का एक देसी अद्धा और दो आने की चाय…दो आने की पकौड़ी ….नहीं–नहीं, आलू-मटर…. अच्छा, न सही, चारों आने का मांस ले लूँगा, पर वह छोकरा! उसका गढ़ा जो भरना होगा, यह कितना खाएगा और क्या खाएगा? ओह! आज तक तो कभी मैंने दूसरों के खाने का सोच-विचार किया ही नहीं। तो क्या ले चलूँ?—पहले एक अद्धा तो ले लूँ—इतना सोचते-सोचते उसकी आँखों पर बिजली के प्रकाश की झलक पड़ी। उसने अपने को मिठाई की दुकान पर खड़ा पाया। वह शराब का अद्धा लेना भूल कर मिठाई-पूरी खरीदने लगा। नमकीन लेना भी न भूला। पूरा एक रुपये का सामान लेकर वह दुकान से हटा। जल्द पहुँचने के लिए एक तरह से दौड़ने लगा। अपनी कोठरी में पहुंचकर उसने दौनों की पाँत बालक के सामने सजा दी। उनकी सुगंध से बालक के गले में एक तरावट पहुंची। वह मुस्कराने लगा।
शराबी ने मिट्टी की गगरी से पानी उड़ेलते हुए कहा, ‘नटखट कहीं का, हँसता है, सौंधी बास नाक में पहुंची ना! ले खूब, ठूँस कर खा ले और फिर रोया कि पीटा।’
दोनों ने, बहुत दिन पर मिलने वाले दो मित्रों की तरह साथ बैठ कर भर पेट खाया। सीली जगह पर सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गई, तो शराबी भी कम्बल तान कर बड़बड़ाने लगा। सोचा था, आज सात दिन पर भर पेट पीकर सोऊँगा लेकिन यह छोटा-सा रोता पाजी न जाने कहाँ से आ धमका?
एक चिंतापूर्ण आलोक में आज पहले-पहल शराबी ने आँखें खोल कर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्र्य की विभूति को देखा और देखा उस घुटनों से ठुड्डी लगाए हुए निरीह बालक को; उसने तिलमिला कर मन-ही-मन प्रश्न किया– किसने ऐसे सुकुमार फूल को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घर-बारी बनाना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता — जिसपर, आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था— इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे-से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन-सा इन्द्रजाल रचाने का बीड़ा उठाया है? तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा? नहीं, भगा दूंगा इसे —आँख तो खोले।
बालक अंगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहा, ‘ले उठ, कुछ खा ले, अभी रात का बचा हुआ है; और अपनी राह देख! तेरा नाम क्या है रे?’
बालक ने सहज हंसी हँस कर कहा, ‘माधवा! भला हाथ-मुँह भी न धोऊँ? और जाऊँगा कहाँ?’
‘आह!’ कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाए! कह दूँ कि भाड़ में जा; किन्तु वह आज तक दुःख की भट्टी में जलता ही रहा है। तो…. वह चुपचाप घर से झल्ला कर सोचता हुआ निकला —ले पाजी अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!
शराबी घर से निकला। गोमती किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ कि वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था, पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने लगा। उजली धूप निकल आई थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गरमी से सुखी होकर वह चिंता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा —
‘भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखाई पड़े. तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।’
शराबी ने चौंक कर देखा। वह कोई जान-पहचान का तो मालूम होता था;पर ठीक-ठीक न जान सका।
उसने फिर कहा, ‘तुम्हीं से कह रहे हैं। सुनते हो, उठा ले जाओ अपनी सान धरने की कल, नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा। एक ही तो कोठरी, जिसका मैं दो रुपए किराया देता हूँ, उसमे क्या मुझे अपना कुछ रखने के लिए नहीं है। ‘
‘ओ हो? रामजी तुम हो भाई, मैं भूल गया था। तो चलो, आज ही उसे उठा लाता हूँ।’—-कहते हुए शराबी ने सोचा, ‘अच्छी रही, उसी को बेचकर कुछ दिनों तक काम चलेगा।’ गोमती नहाकर, रामजी, पास ही अपने घर पर पहुंचा। शराबी की कल देते हुए उसने कहा, ‘ले जाओ, किसी तरह मेरा इससे पिंड छुटे।’
बहुत दिनों पर आज उसको कल ढोना पड़ा। किसी तरह अपनी कोठरी में पहुँच कर उसने देखा कि बालक बैठा है। बड़बड़ाते हुए उसने पूछा, ‘क्यूँ रे, तूने कुछ खा लिया कि नहीं?’
‘भर पेट खा चूका हूँ और वह देखो तुम्हारे लिए भी रख दिया है।’ कह कर उसने अपनी स्वाभाविक हंसी से उस रूखी कोठरी को तर कर दिया।
शराबी एक क्षण भर चुप रहा। फिर चुपचाप जलपान करने लगा।—मन-ही-मन सोच रहा था —यह भाग्य का संकेत नहीं तो और क्या है? चलूँ फिर सान देने का काम चलता करूँ। दोनों का पेट भरेगा। वही पुराना चरखा फिर सिर पड़ा। नहीं तो दो बातें किस्सा कहानी इधर-उधर की कह कर काम चला ही लेता था? पर अब तो बिना कुछ किए घर नहीं चलने का। जल पीकर बोलै, ‘क्यूँ रे माधव अब तू कहाँ जाएगा?’
‘कहीं नहीं।’
‘यह लो तो फिर यहाँ जमा गाढ़ी है कि मैं खोद-खोद कर तुझे मिठाई खिलाता रहूंगा?’
‘तब कोई काम करना चाहिए।’
‘करेगा?’
‘जो कहो?’
‘अच्छा तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पड़ेगा। यह कल तेरे लिए लाया हूँ! चल, आज से तुझे सान देना सिखाऊंगा। कहाँ, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा ना?’
‘कहीं भी रह सकूंगा; पर उस ठाकुर की नौकरी न कर सकूंगा।’
शराबी ने एक बार फिर स्थिर दृष्टि से उसे देखा। बालक की आँखें दृढ़ निश्चय की सौगंध खा रही थी।
शराबी ने मन-ही मन कहा, ‘बैठे-बिठाये यह हत्या कहाँ से लगी? अब तो शराब न पीने की मुझे भी सौगंध लेनी पड़ी।’
वह साथ ले जाने वाली वस्तुओं को बटोरने लगा। एक गट्ठर का उन और दूसरा कल का, दो बोझ हुए।
शराबी ने पूछा, ‘तू किसे उठाएगा?’
‘जिसे कहो!’
‘अच्छा तेरा बाप जो मुझे पकड़े तो?’
‘कोई नहीं पकड़ेगा, चलो भी। मेरे बाप कभी के मर गए। ‘
शराबी आश्चर्य से उसका मुंह देखता हुआ कल उठा कर खड़ा हो गया। बालक ने गठरी लादी। दोनों कोठरी छोड़ चल पड़े। -जयशंकर प्रसाद

ठूंठ में कोंपल

उस रात रीना बहुत बेचैन रही. उसकी आंखों की नींद उड़ चुकी थी, शरीर कसमसा रहा था. विचार उसके मस्तिष्क को शान्त नहीं रहने दे रहे थे और शरीर का कसाव उसके सारे अंगों को तोड़-मरोड़ रहा था. उसके दिमाग में विचार गड्‌ड-मडड्‌ हो रहे थे और वह स्थिर होकर किसी भी एक बात पर विचार नहीं कर पा रही थी. अगली सुबह रीना ने जब आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसे लगा कि उदासी की एक और पर्त उसके मुख पर चढ़ गयी थी. पर्त-दर-पर्त उसका चेहरा उदासी के जंगल में गुम होता जा रहा था और जंगल धीरे-धीरे घना होता जा रहा था. यह सचमुच चिन्ताजनक बात थी. पच्चीस की उम्र में लड़कियों के चेहरे पर वसन्त के फूल खिलते हैं, न कि पतझड़ के सूखे पत्ते वहां उड़ते हैं. यह क्या होता जा रहा है उसे? नेहा ने उसे एक दिन फिर टोंका था, ‘‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम चिड़-चिड़ी होती जा रही हो. बात-बेबात पर तुम्हें गुस्सा आने लगा है?”

रीना मलिक को पच्चीस वर्ष की वय तक किसी से प्यार नहीं हुआ था और इस बात का उसे बहुत अभिमान था. उसका मानना था कि शादी के पहले का प्यार-प्यार नहीं होता, बल्कि वासना होती है, महज शारीरिक आकर्षण होता है. युवक और युवती एक अनैतिक और अमर्यादित संबन्ध को प्यार का नाम देकर केवल अपनी शारीरिक भूख शान्त करते हैं…बस!
बड़ी अजीब बात थी कि एक सुन्दर और जवान लड़की का परिपक्व उमर तक किसी लड़के को देखकर दिल नहीं धड़का था, किसी की तरफ उसने लालसा भरी नजरों से नहीं देखा था. क्या उसमें कोई शारीरिक या ऐन्द्रिक कमी थी, या उसके संस्कार और पारिवारिक मूल्य इतने तगड़े थे कि उसने जान-बूझकर अपनी आंखों में गाढ़ा-मोटा पर्दा डाल लिया था; ताकि उसे कुछ दिखाई न पड़े और अपने दिल को उसने भारी भरकम बोझ के नीचे दबा रखा था. अपने नाजुक दिल को उसने मर्यादा के मजबूत तारों से जकड़ रखा था कि वह किसी लड़के के प्रति धड़क न उठे किसी को प्यार करना या न करना, यह रीना का व्यक्तिगत मामला था और इसमें कोई उसकी मदद नहीं कर सकता था, परन्तु उसकी इस हठधर्मी का परिणाम बहुत गलत तरीके से उसके ही ऊपर पड़ रहा था. वह सबसे अलग-थलग पड़ती जा रही थी. सहेलियां अपने-अपने प्रेमियों के साथ जीवन के मजे लूट रही थीं या जब आपस में मिलतीं तो एक दूसरे के प्रेम के किस्से चटखारे लेकर सुनती-सुनाती कालेज के लड़के-लड़कियां अपनी मस्तियों में डूबे हुए रहते थे. ऐसे में खूबसूरत बगीचे में रीना एक ठूंठ के समान खड़ी हुई लगती थी. वह किसी की बातों में शामिल नहीं होती थी और न इस तरह की बातों में कोई उसे शामिल करता था.
वह जब कालेज की लड़कियों के आसपास होती तो वे ऐसे जाहिर करतीं जैसे वह कोई अनजान और बाहरी लड़की हो जो भूलवश उनके बीच में आकर खड़ी हो गयी थी. वह खूबसूरत थी, बहुत खूबसूरत…परन्तु उसकी खूबसूरती में उदासी का ग्रहण लगा हुआ था. उसका चेहरा हरदम सूखी हुई लौकी की तरह लटका ही रहता था. अनजाने भी उसके चेहरे पर मुस्कराहट की परछार्इं नजर नहीं आती थी. अपनी सहेलियों के बीच वह मर्दाना औरत के नाम से जानी जाती थी. सब उसका मजाक उड़ाते, पर रीना देखा-अनदेखा कर देती और सुनी-अनसुनी. कुछ नजदीकी सहेलियां जब अपने प्यार के किस्से चटखारे लेकर सुनातीं तो वह कान पर हाथ धर कर बंद कर देती, मुंह दूसरी तरफ घुमा लेती या उठकर चल देती. सहेलियां उसकी इन हरकतों पर खिलखिला कर हंस पड़तीं और कहती, ‘‘ठूंठ कहीं की, पता नहीं भगवान ने इसे लड़की कैसे बना दिया. लगता है, लड़की के शरीर में लड़के की जान डाल दी है, परन्तु यह तो किसी लड़की की तरफ भी आकर्षित नहीं होती. इसके लिए लड़के लड़कियां सब एक समान हैं. पता नहीं किसको प्यार करेगी, करेगी भी या नहीं. लगता है, ताउम्र कुंआरी ही रह जाएगी. कौन इस फटे मुंह के साथ अपना रिश्ता जोड़ेगा?” रीना ने अपने इर्द-गिर्द जो न टूटने वाला घेरा डाल रखा था, उसे पार करने की जुर्रत कोई लड़का भी नहीं करता था. जब उस पर नई-नई जवानी चढ़ रही थी, कई भंवरों ने उसके ऊपर मंड़राकर गुनगुनाने का प्रयास किया था, परन्तु रीना एक ऐसा फूल थी, जिसमें खुशबू नाम का तत्व नहीं डाला गया था…उसमें पराग नहीं था. वह ऐसी गीली लकड़ी की तरह थी, जिस पर न तो आग लग सकती थी और न उस पर पानी कुछ असर करता था. वह न भीगती थी, न जलती…जलना तो दूर सुलगती भी नहीं थी. उसकी सबसे प्रिय सहेली नेहा ने एक दिन कहा, ‘‘क्यों अपने जीवन को बंजर बना रही हो. जीवन में प्यार के फूल न खिलें, और खुशियों के रंग न बिखरें; तो ऐसे ठूंठ जीवन को जीने का क्या फायदा?” नेहा एक अच्छे स्वभाव की लड़की थी. वह सदैव रीना के भले के बारे में सोचती थी. उसका मत था कि रीना अपनी उदासी को दूर करने के लिए या तो शादी कर ले या किसी से प्यार…जो आज के जमाने में एक जरूरियात बन गई थी.
‘‘प्यार करूंगी, परन्तु अपने पति से…किसी और से नहीं.” रीना ने अपनी लटों को झटकते हुए कहा.
‘‘प्यार का अर्थ ये तो नहीं होता कि तुम अपना शरीर ही उस लड़के को समर्पित कर दो.” नेहा जैसे समझाने का प्रयास कर रही थी.
‘‘इसके अलावा लड़के और कुछ नहीं चाहते एक लड़की से.” रीना ने दृढ़ता से कहा.
‘‘चाहते होंगे, परन्तु यह तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि किस सीमा तक हम उनको अपने नजदीक आने देते हैं.”
‘‘मैं नहीं समझती कि सीमा-रेखा बनाकर कोई किसी से प्यार करता है. जब लड़का-लड़की एकान्त में मिलते हैं तो सारी सीमाएं टूट जाती हैं.” रीना इतने आत्मविश्वास से यह बात कह रही थी जैसे उसने अपने जीवन में इसे अच्छी तरह से भोग लिया था.
‘‘लेकिन मैं समझती हूं कि तुम नियम-कानून बनाकर प्यार कर सकती हो, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव अलग है. तुम अपने चारों तरफ एक रेखा खींच सकती हो. कोई भी लड़का उसे पार करने की हिम्मत नहीं करेगा. लड़की के विचार शुद्ध और निर्मल हों, मन में दृढ़ आत्मविश्वास हो तो कोई भी लड़का तुमसे किसी प्रकार की ज्यादती नहीं कर सकता.”
‘‘मुझे आवश्यकता ही क्या है कि मैं किसी से प्यार करूं?” वह थोड़ा झुंझलाकर बाले ी.
‘‘आवश्यकता तो नहीं है, परन्तु तुम किसी को अपने मन में बसाकर देखो, तब पता चलेगा कि प्यार विहीन जीवन से प्यारसिक्त जीवन कितना अलग होता है. ठूंठ पर तो भटका हुआ पक्षी भी नहीं बैठता. कहीं ऐसा न हो कि तुम उजाड़ रेगिस्तान का एक सूखा हुआ ठूंठ बनकर रह जाओ और उस पर कभी कोई कोंपल तक न उगे. अपने जीवन को नीरस मत बनाओ. अपने आचरण से तुम हम सबसे भी दूर होती जा रही हो. कोई भी लड़की तुम्हें अपने साथ नहीं रखना चाहती. तुम बिलकुल अलग-थलग पड़ती जा रही हो. एक दिन मैं भी तुम्हें अकेला छोड़ दूंगी, तो बताओ तुम कालेज में किसके साथ हंसोगी, बोलोगी और किसके साथ उठोगी-बैठोगी. लड़के तो पहले से ही तुमसे इतना दूर हो चुके हैं कि अब कोई तुम्हारी तरफ देखना भी पसंद नहीं करता. ऐसी सुन्दरता किस काम की, जिसका कोई प्रशंसक न हो, कोई गुण-ग्राहक न हो.” नेहा ने जैसे उसे फटकार लगाते हुए कहा.
रीना के मस्तिष्क को एक तगड़ा झटका लगा. क्या प्यार जीवन के लिए इतना जरूरी है? क्या यही एक ऐसा धागा है, जो मानव को मानव से जोड़ता है, उन्हें खुश रखता है. उसके विचारों में एक बवण्डर सा उठा और वह उसके वेग से एक तरफ कटी पतंग की तरह उड़ चली.
ऐसी बात नहीं थी कि नेहा ने उसे पहले कभी नहीं समझाया था. उन दोनों के बीच में इस तरह की बातें हमेशा होती रहती थीं, परन्तु रीना एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती. प्यार की बातों को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया। परन्तु धीरे-धीरे वह स्वयं महसूस करने लगी थी कि जैसे वह भीड़ के बीच भी अकेली थी. सभी उसके परिचित थे, परन्तु न तो कोई उसकी तरफ देख रहा था, न कोई उसकी बात सुन रहा था. वह उपेक्षित सी एक किनारे खड़ी थी और लोग हंसते-खिलखिलाते उसके पास से गुजरते हुए चले जा रहे थेवह सोचने पर मजबूर हो गयी थी कि क्या इस दुनिया में उसका कोई अस्तित्व भी है? अगर है, तो फिर लोग उसकी तरफ आकर्षित क्यों नहीं होते? क्यों उसे अलग-थलग करने पर आमादा थे? इस बात का उत्तर तो उसी के पास था और वह इससे भलीभांति परिचित थी. उस रात रीना बहुत बेचैन रही. उसकी आंखों की नींद उड़ चुकी थी, शरीर कसमसा रहा था. विचार उसके मस्तिष्क को शान्त नहीं रहने दे रहे थे और शरीर का कसाव उसके सारे अंगों को तोड़-मरोड़ रहा था. उसके दिमाग में विचार गड्‌ड-मडड्‌ हो रहे थे और वह स्थिर होकर किसी भी एक बात पर विचार नहीं कर पा रही थी. अगली सुबह रीना ने जब आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसे लगा कि उदासी की एक और पर्त उसके मुख पर चढ़ गयी थी. पर्त-दर-पर्त उसका चेहरा उदासी के जंगल में गुम होता जा रहा था और जंगल धीरे-धीरे घना होता जा रहा था. यह सचमुच चिन्ताजनक बात थी. पच्चीस की उम्र में लड़कियों के चेहरे पर वसन्त के फूल खिलते हैं, न कि पतझड़ के सूखे पत्ते वहां उड़ते हैं. यह क्या होता जा रहा है उसे? नेहा ने उसे एक दिन फिर टोंका था, ‘‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम चिड़-चिड़ी होती जा रही हो. बात-बेबात पर तुम्हें गुस्सा आने लगा है?”
‘‘तो…मैं क्या कर सकती हूं?” वह मुंह लटकाकर बोली.
‘‘बहुत कुछ… इतना शिक्षित होने के बाद भी क्या तुम नहीं समझती कि ऐसा तुम्हारे साथ क्यों हो रहा है? अगर तुमने अपने आपको नहीं सुधारा तो समझ लो, तुम पागलपन की ओर अपने कदम बढ़ा रही हो. जल्द ही तुम्हें हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगेंगे.”
‘‘क्या ऐसा होता है? मैं तो पूरी तरह स्वस्थ हूं!”
‘‘शरीर से स्वस्थ हो, परन्तु दिमाग से नहीं. जिन जवान औरतों की शारीरिक भूख शांत नहीं होती, वह हिस्टीरिया के दौरों से ग्रस्त हो जाती हैं. देहाती औरतें भूत-प्रेत के चक्कर चलाती हैं और इस तरह बाबाओं के पास जाकर इलाज के बहाने अपनी भूख मिटाती हैं. मुझे डर है कि कहीं तुम्हें भी इसी दौर से न गुजरना पड़े कहीं तुम सोच-सोचकर पागल न हो जाओ.” ‘‘क्या तुम मुझे डरा रही हो?” रीना सचमुच डर गई थी. नेहा ने उसे उदास नजरों से देखा, ‘‘नहीं मैं सच बयान कर रही हूं। तुम जल्दी से शादी कर लो. यही तुम्हारे लिए उचित रहेगा, प्यार तुम किसी से कर नहीं सकती.” नेहा का जोर केवल कहने भर तक था. मानना न मानना रीना के ऊपर था. बचपन से लेकर जवानी तक रीना एक भ्रम में जीती रही थी. उसके पारिवारिक संस्कारों ने बहुत गहरे तक उसके मन में यह बात बिठा रखी थी कि प्यार-मोहब्बत, लड़के-लड़कियों का आपस में मेल-जोल और उनसे एकान्त में मिलना, न केवल बुरी बात होती है, बल्कि इससे सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक मान-सम्मान को भी आंच आती है. इसी धारणा को अपने मन में पालते हुए रीना प्रकाश के विरुद्ध शरीर में आए बदलावों, अपनी भावनाओं और शारीरिक इच्छाओं से लड़ती हुई जी रही थी…शायद जी भी नहीं रही थी, तिल-तिलकर मरने के लिए मजबूर हो रही थी. उसने अपने मुख पर एक झूठा आवरण डाल रखा था और सच्चाई का सामना करते हुए डरती थी. सच्चाई तो कुछ और ही थी.
ऊपर से वह कुछ भी दिखावा करती रही हो, परन्तु अन्दर से वह एक भरपूर जवान लड़की थी. सामान्य लड़कियों की तरह उसके मन में भी इच्छाएं और कामनाएं जन्म लेती थीं. उसके मन में भी वासनात्मक विचार आते थे, किसी से प्यार करने का मन होता था. लड़कों को देखकर उसका दिल भी धड़कता था, परन्तु झूठा आवरण तोड़ने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी. मन ही मन वह घुट रही थी. बी.ए. और एम.ए. करने के बाद उसने इसी कालेज से पीएचडी की थी. अब उसी कालेज में पढ़ा भी रही थी. इसी कालेज में कितने लड़के उसके दीवाने थे, कितने प्राध्यापक उसे अपने आगोश में समेटने के लिए आतुर थे, परन्तु वह सबसे बचती-बचाती रही थी. इतने दिनों तक उसने अपने आपको किस तरह धोखे में रखा था, वही जानती थी. अपने दिल के सारे अरमानों को उसने चकनाचूर कर दिया था.
शारीरिक बदलाव, मानसिक चिन्ताओं और सहेलियों के ताने-उलाहनों से वह अब कुछ ज्यादा ही विचलित होने लगी थी. मन बगावत करने के लिए कहता, परन्तु निरर्थक मान्यता और मर्यादा उसे हमेशा रोक लेती. घुटन बढ़ती जा रही थी और वह कुछ निर्णय नहीं ले पा रही थी. अन्ततः उसने अपनी सहेली नेहा को अपनी मनोस्थिति से अवगत कराया. सुनकर नेहा भेद भरे ढंग से मुस्कराई और उसे अपने अंक में भरकर बोली, ‘‘तो
शीशा पिघल रहा है. ठूंठ में भी अंकुर पनपने लगा है, बधाई हो!”
‘‘तुम मुझे कोई रास्ता बताओ.” उसने बेचारगी के भाव से कहा.
‘‘प्यार तुम करोगी नहीं, शादी कर लो.” नेहा ने सहज भाव से जवाब दिया.
‘‘मजाक मत करो, तुम्हें पता है, मैं अभी शादी नहीं कर सकती. घर में कोई इस बारे में बात तक नहीं करता.” उसके स्वर में निराशा का पुट था.
‘‘हां, दुधारू गाय को कौन दूसरे के खूंटे से बांधना चाहेगा.” नेहा ने दुःख-भरे स्वर में कहा. नेहा की बात से रीना का मन दुखित हो उठा. घर में उसका बड़ा भाई था. उसकी शादी हो चुकी थी, परन्तु एक नम्बर का निकम्मा और आवारा था. बाप और बहन की कमाई पर खुद का और पत्नी का पेट पाल रहा था. उसको लेकर घर में लगभग रोज लड़ाइयां होती थीं, परन्तु उसकी सेहत पर कोई असर न पड़ता था. सब उसे घर से अलग करना चाहते थे, परन्तु वह घर से अलग होने का नाम नहीं लेता था. मुफ्त की रोटियां जो तोड़ने को मिल रही थीं. उसके निकम्मेपन की वजह से मां-बाप रीना की शादी में भी देरी कर रहे थे; ताकि जब तक उसकी शादी न हो, कम से कम उसकी तनख्वाह तो घर में आती रहे.
‘‘मैं बहुत परेशान हूं.” रीना ने जैसे सब कुछ नेहा के भरोसे छोड़ दिया था,
‘‘अब मैं अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर सकती.”
‘‘तो किसी से दोस्ती कर लो.” नेहा ने सुझाव दिया.
‘‘परन्तु किससे?” उसने जैसे अपनी मान्यताओं को ठुकराकर हार मान ली हो.
‘‘जिस पर तुम्हारा दिल आ जाए.”
‘‘अगर वह भी मेरे शरीर का भूखा हुआ तो…?” उसने आशंका जाहिर की.
‘‘तो तुम किसी से प्यार नहीं कर सकती.” नेहा ने जोर से कहा, ‘‘बेवकूफ, पहले दोस्ती तो कर किसी से…उसके बाद अगर लगे कि उसके साथ प्यार किया जा सकता है तो आगे बढो़, वरना छोड़ दो. फिर शादी होने तक इन्तजार करो.” रीना को नेहा की बात उचित लगी. किसी से दोस्ती करने में क्या हर्ज है? अपनी सीमा में रहेगी, तो क्या मजाल कि उसके पवित्र शरीर को कोई अपने नापाक हाथों से गन्दा कर सके. उसके मन का सूनापन दूर हो जाएगा. उसका मन मचल उठा. मन की आंखों से उसने सारे लड़कों को आजमा डाला. बहुत सारे युवक थे, पर यथार्थ में उससे बहुत दूर. अब उसे ही अपने प्रयत्नों से उनमें से किसी एक को अपने करीब लाना होगा, या उसके करीब जाना होगा. यह काम बहुत मुश्किल था, क्योंकि उसके स्वभाव से सभी परिचित थे. परन्तु उसने नामुमकिन को मुमकिन करने की ठान ली थी. नेहा की सलाह, सुझाव और प्रोत्साहन उसे प्यार की डगर पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे. प्रशान्त कालेज में उससे दो साल सीनियर था. मनोविज्ञान पढ़ाता था और शान्त प्रकाश्ति का युवक था. रीना पहले भी उसके बारे में सोचा करती थी, अब तो पूरा मन ही उसके ऊपर फिदा हो गया था. उनके बीच अक्सर बातें नहीं हो पाती थी. प्रशान्त शान्त प्रकश्ति का था, तो रीना नकचढ़ी और अपने अभिमान में डूबी रहने वाली. दोनों के स्वभाव में चुप रहने के अलावा और कोई समानता नहीं थी. दोनों अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहने वाले प्राणी थे, और उनके बीच में दोस्ती या बोल-चाल जैसी कोई बात नहीं थी, जबकि वह दोनों एक ही कालेज में पढ़ाते थे और स्टाफ रूम में अक्सर उन दोनों का आमना-सामना होता रहता था. नेहा उनके बीच माध्यम बनी. कामनरूम में जब नेहा प्रशान्त के सामने बैठी उसके साथ इधर-उधर की बातें करके उसको उलझाए हुई थी, तो रीना उसकी बगल में बैठकर नई नवेली दुल्हन की तरह शरमाती-सकुचाती, अपनी आंखों में दुनिया के सबसे सुन्दर ख्वाब सजाए कभी तिरछी नजर से, कभी सीधे देखती हुई मुस्कराये जा रही थी. प्रशान्त को रीना की इन बेतुकी हरकतों पर बड़ा आश्चर्य हो रहा था. वह बातें तो नेहा से कर रहा था, परन्तु नजरें रीना के रंग बदलते चेहरे पर जाकर बार-बार अटक जाती थी. उसने रीना को पहले भी देखा था, परन्तु इतना चंचल कभी नहीं…वह किसी स्नेह भाव से नहीं, बल्कि आश्चर्य मिश्रित सन्देह से रीना को घूरे जा रहा था. नेहा ने भांप लिया और बोली, ‘‘क्यों सर! रीना पर दिल आ रहा है क्या?
बातें आप मुझसे कर रहे हैं और देख उसको रहे हैं.” वह झेंप गया, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.” उसने सिर नीचा कर लिया और बेवजह मेज पर रखी पुस्तक को उलटने पुलटने लगा. नेहा ने अर्थपूर्ण निगाहों से रीना की आंखों में झांका. रीना भी मुस्कराई, जैसे उसको प्यार का खजाना प्राप्त हो गया हो.
‘‘लंच का समय हो रहा है, कैंटीन में चलकर कुछ खा-पी लेते हैं.” नेहा ने सुझाव दिया.
‘‘हां, बिलकुल ठीक…मुझे बहुत जोरों की भूख लगी है.” रीना ने चहककर कहा. इस प्रस्ताव पर भी प्रशान्त को आश्चर्य हुआ. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. नेहा भी आज उससे घुल-मिलकर बातें कर रही थी. रीना भी उसको देखकर बन्दरों की तरह खिसियाए जा रही थी. आखिर चक्कर क्या था? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. नेहा ने कैंटीन चलने का सुझाव दिया तो उसे और ज्यादा आश्चर्य हुआ। यह आज दिन में चांद-सितारे कहां से चमकने लगे. दोनों को उसके ऊपर क्यों इतना प्यार आ रहा है कि उसे साथ चलकर लंच करने के लिए कह रही हैं. कोई न कोई बात तो अवश्य है, वरना नेहा जैसी समझदार और सुलझी हुई लड़की उसके साथ इस तरह घुलकर बातें नहीं करती. मन में शंकाओं के बादल घुमड़ रहे थे, परन्तु यह बादल तभी छंट सकते थे, जब वह ज्यादा से ज्यादा उनके साथ रहे, उनकी बातें सुने और उनके अन्तर्मन को समझे. अतः उसने कहा, ‘‘अगर आप लोगों की इच्छा है, तो….चलिए.” वह उठ खड़ा हुआ.
‘‘परन्तु कालेज की कैन्टीन में नहीं. वहां बहुत सारे कालेज के छात्र-छात्रायें आती हैं. कुछ हमारी परिचित भी होंगी. बेवजह चर्चा होगी और लोग बातें बनायेंगे. चलिए, बाहर कहीं चलते हैं.” नेहा ने यथार्थ से अवगत कराते हुए कहा.
‘‘परन्तु दो बजे मेरी क्लास है!” प्रशान्त ने अटकते हुए कहा.
‘‘हम जल्दी ही लौट आएंगे. कालेज के सामने ही किसी रेस्त्रां में बैठकर कुछ हल्का-पुâल्का खा लेंगे.”
यह रीना की प्रशान्त के साथ पहली मुलाकात थी, परन्तु दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई. नेहा ही उसके साथ बातों में व्यस्त रही. रेस्त्रां में खाने के दौरान वह बिना किसी झिझक के प्रशान्त को ही खुलकर देखती रही थी. प्रशान्त उसकी निगाहों का ताव नहीं ला पा रहा था. उसके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे, परन्तु वह उनको व्यक्त नहीं कर सकता था. वह ज्यादातर समय गुम-सुम रहा और नेहा की बक-बक तथा रीना की निगाहों का अर्थ समझने का प्रयास करता रहा था. रीना जितना आंखें चुराने वाली लड़की थी, उतना ही आज खुलकर वह प्रशान्त को देख रही थी. परन्तु उस दिन कुछ खास उसकी समझ में नहीं आया. प्रशान्त की दो बजे की क्लास थी, अतः वह तीनों जल्दी ही हल्का-पुâल्का खाकर कालेज के अन्दर आ गये. अगली दो-तीन मुलाकातें भी नेहा के माध्यम से हुर्इं. प्रशान्त को धीरे-धीरे बात समझ में आ रही थी, परन्तु उसके मन में शंकाएं थीं, तो रीना के मन में संस्कारों की बेड़ियां. वह दोनों खुलकर आपस में बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे नेहा ही बातों-बातों में रीना के मन की झूठी-सच्ची बातें प्रशान्त को बताकर उसके मन को रीना की तरफ आकर्षित करना चाह रही थी. वह अच्छी तरह जानती थी कि प्रशान्त और रीना स्वयं एक दूसरे की तरफ नहीं बढ़ेंगे, अतः उसे ही कुछ न कुछ करना पड़ा। एक दिन स्टाफ रूम में जब रीना उसके साथ नहीं थी तो नेहा ने प्रशान्त से पूछा, ‘‘रीना के बारे में आप क्या सोचते हैं?”
वह मधुर मुस्कान की जलेबी अपने चेहरे पर लपेटता हुआ बोला, ‘‘मैं तो आपके बारे में सोचता हूं.” नेहा चौंकी नहीं, उसे कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ. निर्विकार भाव से बोली- ‘‘मेरे बारे में सोचना छोड़ दो. मैं आपके हाथ आनेवाली नहीं, आप रीना के बारे में सोचो, वह आपकी तरफ आकर्षित है, आपके बारे में बातें करती रहती है. मुझे लगता है, वह अपने दिल में आपको बसा चुकी है.”
‘‘हो सकता है, परन्तु वह मुझे नारी नहीं लगती. उसमें कोई स्त्रियोचित गुण नहीं है. वह ठूंठ है ठूंठ…”
‘‘व्यर्थ की धारणा अपने मन से निकाल दो. वह एक बहुत सुन्दर लड़की है, बाहर से भी और अन्दर से भी…आप एक बार प्रयत्न करके तो देखो. ऊपर से ठूंठ को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि उसकी जड़ें हरी नहीं हैं. ठूंठ में भी कोंपलें निकलती हैं, अगर ढंग से उसे सींचा जाय.” नेहा गंभीर थी और प्रशान्त के मन में संशय के बादल घुमड़ रहे थे-
‘‘मुझे उसकी आंखों में मेरे लिए प्यार जैसा कोई भाव नहीं दिखाई देता.”
‘‘प्यार के मामले में वह अभी बच्ची है. उसे प्यार करना नहीं आता, परन्तु उसके दिल में प्यार का सागर उमड़ रहा है. बस बांध को तोड़ना पड़ेगा, प्यार का सागर बह निकलेगा. देखना, एक दिन जब उसके प्यार का बांध टूटेगा तो तुम डूब जाओगे, निकल नहीं पाओगे उससे.”
‘‘परन्तु जब वह हंसती है, तो जोकर लगती है.” ‘‘आप उसे प्यार से हंसना सिखा दो.” नेहा ने उसे उकसाया. हर रोज इसी तरह की बातें होतीं. रोज-रोज नेहा से रीना की बातें सुन-सुनकर प्रशान्त उसके बारे में सोचने पर मजबूर हो गया. वह उसके दिलो-दिमाग में कब्जा जमाती जा रही थी और वह उसके बारे में सोचने के लिए मजबूर…स्थिति यह हो गयी कि रीना एक पल के लिए भी उसके दिमाग से नहीं निकलती थी. रात-दिन घुटते रहने से क्या लाभ…? बात को आगे बढ़ाना चाहिए? नेहा ने उसे समझाया और फिर उसने हिम्मत करके एक दिन रीना को एकान्त में प्रपोज कर ही दिया, ‘‘रीना, बुरा न मानो तो एक बात कहूं.”
‘‘कहो!” उसने प्रोत्साहित किया. वह समझ रही थी कि प्रशान्त क्या कहने वाला था. नेहा ने उसे बता दिया था‘. ‘मेरे साथ घूमने चलोगी?” वह झिझकते हुए बोला‘‘कहां?”
‘‘जहां तुम कहो.”
‘‘मैं किसी जगह के बारे में नहीं जानती. आप अपनी मर्जी से चाहे जहां ले चलें, परन्तु मैं एक शर्त पर चलूंगी. मैं आपके साथ किसी एकान्त जगह पर नहीं चलूंगी, और वायदा करिए कि आप मेरे साथ कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करेंगे.” रीना के संस्कारों ने सांप की तरह बिल से मुंह निकालना शुरू कर दिया. यह प्रथम अवसर था, जब दोनों के बीच प्यार की शुरुआत जैसी कोई गंभीर बातचीत हो रही थी और रीना अपनी नासमझी से बात को बिगाड़ने में लगी हुई थी. प्रशान्त को उसकी बातें सुनकर झटका सा लगा. क्या इस लड़की से प्यार किया जा सकता है? बड़ी कठिन लड़की है. उसे रीना की बात पर गुस्सा तो बहुत आया, परन्तु उसने अपने आपको संभाल लिया. उसकी समझदारी से ही शायद बात बन जाए, और इस नकचढ़ी और घमण्डी लड़की के जीवन में प्यार की दो-चार पुâहारें पड़ जाए, जिससे यह हरी-भरी दिखने लगे; वरना तो यह ठूंठ ही है, और ठूंठ ही बनी रहना चाहती हैवह तो इस लड़की से कभी प्यार न करता. कभी इसका खयाल तक उसके दिमाग में नहीं आता था. नेहा की बातों से उसका मन इसके लिए मचलने लगा था, वरना सुन्दरता के अलावा इस लड़की में क्या है? न कोई तमीज है, न कोई समझ..बेवकूफ कहीं की. उसने अपने गुस्से को फिलहाल काबू में किया, परन्तु उसने मन ही मन तय कर लिया, इसे सबक सिखाकर रहेगा. अपने आपको बहुत पाक-साफ समझती है और सती-सावित्री की तरह व्यवहार करना चाहती है. ठीक है, तुम भी क्या याद करोगी कि प्रशान्त से पाला पड़ा है. वह कोई मिट्टी का माधो नहीं है कि तुम उसे बेवकूफ बनाकर नचाती फिरोगी. मनमुटाव से ही सही, परन्तु दोनों के बीच घूमने का सिलसिला चल पड़ा. दोनों अक्सर शाम को कालेज के बाद साथ-साथ घूमने जाते. प्रशान्त जान-बूझकर ऐसी जगह बैठता, जहां खूब भीड़ भाड़ हो. बस, मेट्रो या आटो में भी वह रीना से इतनी दूरी बनाकर रखता, कि रीना को स्पष्ट आभास होता रहे कि वह उसके सान्निध्य के लिए लालायित या उत्सुक नहीं है. ऐसी लड़कियों को उपेक्षा से ही सही रास्ते पर लाया जा सकता था. पार्वâ में या रास्ते में कभी भी आते-जाते प्रशान्त प्यार भरा कोई शब्द नहीं बोलता. रीना के सौन्दर्य या पहनावे पर भी उसने कभी कोई कमेन्ट नहीं किया. ऐसी कोई बात नहीं की जिससे रीना को यह आभास हो कि वह उसे प्यार करने लगा है या उसका प्यार हासिल करने के लिए उत्सुक था. वह उसकी सुन्दरता से भी प्रभावित होता नहीं दिख रहा था. दोनों बेगानों की तरह मिलते, इधर-उधर की फालतू बातें करते और शाम का अंधेरा घिरने के पहल जुदा होकर अपने-अपने घर चले जाते.
कई महीने बीत जाने पर भी प्रशान्त ने अभी तक उसके किसी अंग को भूले से भी नहीं छुआ था. रीना समझ गई थी कि वह जान-बूझ कर ऐसा कर रहा था. प्रशान्त की उपेक्षा से वह जल-भुनकर रह जाती. इसे अपने सौन्दर्य का अपमान समझती, परन्तु अपने मुंह से कुछ कह भी नहीं सकती थी, क्योंकि प्रारंभ में उसने ही यह शर्त रखी थी कि वह उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करेगा. गलती उसी थी, अब उसे कैसे सुधार सकती थी. इस प्रकार के मिलन से दोनों वर्षा की रिमझिम पुâहारों में भीगने के बजाय रेगिस्तान की तपती धूप में जल रहे थे. रीना कोई पत्थर नहीं थी. प्रशान्त के साथ घूमने-फिरने और बैठने से उसकी भावनाओं में परिवर्तन होता जा रहा था. वह पूरी तरह से प्रशान्त के प्रति आकर्षित हो चुकी थी और मन ही मन उसे प्यार करने लगी थी. हर प्रयास करती कि प्रशान्त उसकी प्रशंसा करे, उसके लिए प्यार के दो शब्द बोले. इसके लिए वह नित अधिक से अधिक सज-संवरकर आती और मन ही मन सोचती कि प्रशान्त उसकी खूबसूरती और कपड़ों की प्रशंसा करेगा, परन्तु वह निर्मूढ़ व्यक्ति की तरह शान्त रहता. घूर-घूरकर अन्य व्यक्तियों की तरफ देखता रहता, परन्तु रीना से आंख न मिलाता. रीना ने एक दिन कहा, ‘‘चलो कहीं एकान्त में बैठते हैं.” प्रशान्त चौंककर बोला, ‘‘यहां एकान्त कहां मिलेगा?”
‘‘लोधी गार्डेन चलते हैं, वहां एकान्त मिलेगा.” रीना ने चहकते हुए कहा.
‘‘तुम्हें कैसे पता?” उसने हैरान होकर पूछा‘‘नेहा ने बताया है.” उसने चहकते हुए कहा. प्रशान्त मान गया. वह दोनों लोधी गार्डेन गये, एकान्त में भी बैठे, परन्तु ढाक के वही तीन पात! प्रशान्त उससे दूर ही बैठा रहा. रीना मखमली घास पर बैठी थी. उसने जान-बूझकर अपनी जगह पर कुछ गड़ने का बहाना बनाकर उसकी तरफ खिसकने का प्रयास किया तो वह और परे खिसक गया रीना ने कुढ़ते हुए उसकी तरफ खा जाने वाली नजरों से देखा, परन्तु वह निश्छल और निर्विकार बैठा रहा. रीना फिर उसकी तरफ फिर खिसकी, ‘‘कुछ बातें करो न.”
‘‘तुम कुछ बोलो,” वह घास के तिनके तोड़ता हुआ बोला.
‘‘देखो, वह फूल कितने सुन्दर हैं.”
‘‘सारे फूल सुन्दर होते हैं.” वह जैसे किसी छात्र को समझा रहा था. रीना के मन में हजारों मन बर्पâ जम गई. कैसे मूढ़ व्यक्ति को अपने मन में बसाने की भूल कर बैठी वह? क्या इसी को प्यार कहते हैं. वह जैसा सोचती थी, वैसा तो कुछ नहीं हो रहा है. लड़के किस प्रकार लड़कियों से चिपकते हैं, कैसे उनके अंगों से छेड़-छाड़ करते हैं और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए प्यार करते हैं, वैसा तो प्रशान्त उसके साथ कुछ नहीं कर रहा है. इसका मतलब वह गलत सोचती थी कि सारे लड़के लड़कियों के शरीर के भूखे होते हैं. प्रशान्त तो उसकी तरफ देखता तक नहीं, उसकी खूबसूरती की प्रशंसा तक नहीं करता. आज तक प्यार का एक शब्द छोड़ो, ऐसा भी कोई शब्द नहीं बोला, जिससे यह लगे कि वह रीना को पसन्द करता था. परन्तु उसने खुद भी तो प्रशान्त के लिए ऐसा कुछ नहीं कहा. गलती तो उसकी भी है…फिर…? क्या वह स्वयं प्यार का इजहार नहीं कर सकती? कर सकती है, परन्तु संकोच और शर्म की बेड़ियों से उसके होंठ सिले हुए हैं, क्योंकि वह एक लड़की है. ऐसी लड़कियों को अच्छा नहीं समझा जाता जो प्यार में बेशर्मी से काम लेती हैं. रीना को अब इस तरह के मेल-मिलापों से घुटन होने लगी थी. उसका मन विद्रोह करने के लिए उतारू था. प्रशान्त से उसे कुछ आशा नहीं थी कि वह उसके साथ कुछ करेगा या प्यार के दो शब्द बोलकर उसके मन में रंग-बिरंगे फूलों की महक बिखरा देगा. वह तो खुद ठूंठ बनता जा रहा था. रीना ने ही कुछ करने की ठानी. वह उससे सटकर बैठने लगी, जान-बूझकर प्रशान्त के हाथों को या किसी अन्य अंग को छू लेती और उसकी छोटी सी बात पर भी खिल-खिलाकर हंस पड़ती. प्रशान्त उसके छूने से ‘‘सॉरी” बोल देता और जब वह हंसती तो उसको आंखें फाड़-फाड़कर देखता.
शाम को रीना देर तक बैठने की जिद्‌ करती. अन्धेरा हो जाता तब भी वह दोनों बैठे रहते. अन्धेरे में रीना उसको जी भर के देखती जैसे कोई साधक अपने इष्टदेव को ताकता हुआ धीर और शान्त बैठा रहता है कि कभी तो भगवान प्रसन्न होकर उसको आर्शिवाद देंगे. परन्तु ऐसे मौकों पर प्रशान्त घर जाने के लिए उतावला रहता था. उठकर खड़ा हो जाता और कहता- ‘‘घर चलो, अन्धेरा हो गया है.” वह मन मारकर कुढ़ते हुए निःशब्द उसके पीछे चल देती. दोनों के बीच में ऐसा कुछ नहीं हो रहा था, जिसे प्यार के नाम से जाना जा सके. रीना हताश और कुण्ठित होती जा रही थी. जब उसने अपनी बेड़ियां तोड़कर मुक्त हवा में सांस लेने का प्रयत्न किया तो सारे पेड़ मुरझा गए, फूलों की खुशबू गायब हो गई, जंगल में आग लग गई. उसके लिए न तो भंवरों ने गीत गाए, न तितलियों ने रंग बिखराए. सारी सृष्टि उसके लिए वीरान हो गई. उसने अपने दिल के हालात नेहा से बयान किए. प्रशान्त की निष्ठुरता पर नेहा को भी हैरानी हुई, परन्तु वह समझ गई कि प्रशान्त ऐसा क्यों कर रहा था. दोनों के बीच की दीवार आसानी से टूटने वाली नहीं थी. रीना को ही कुछ करना होगा, नेहा ने उसे सलाह दी. अगले दिन रीना ने अपने जीवन का सबसे सुन्दर श्रृंगार किया. सबसे अच्छी गुलाबी रंग की साड़ी पहनी. ब्लाउज तो केवल नाम के लिए था। ब्लाउज इतना छोटा था कि उसकी गोरी चिकनी बांहें, पीठ, पेट और वक्ष भाग पूर्णतया दर्शनीय था. प्रशान्त के साथ आज प्यार की बाजी का सबसे बड़ा मोहरा खेलने जा रही थी वह. अगर यह मोहरा पिट गया, तो वह प्यार की बाजी हार जाएगी. यह उसके जीवन मरण का सवाल था. आज नहीं तो कभी नहीं…
शाम का झुटपुटा घिरने लगा था. बोट क्लब के किनारे गुड़हल के पौधों के बीच वह बैठे थे. यह रीना की ही जिद् ‌ थी कि वह दोनों सबकी नजरों से छिपकर बैठें. आज वह अगल-बगल न बैठकर आमने-सामने बैठे थे. यह भी रीना ने कहा था. रीना के दमकते सौन्दर्य, गठीले उठानों और उछलने के लिए बेताब अंगों पर प्रशान्त की नजर नहीं ठहर रही थी. आज से ज्यादा सुन्दर वह पहले कभी नहीं लगी थी. प्रशान्त की सारी इन्द्रियां बेकाबू हो रही थीं. वह बेचैन हो गया था और अपने हृदय को काबू में करने की नाकाम कोशिश कर रहा था, परन्तु रीना जैसे उससे ज्यादा बेताब थी. रीना ने अपने दोनों हाथों से प्रशान्त की कमीज के कालर के नीचे दोनों तरफ पकड़कर उसे अपनी तरफ खींचा. वह लगभग उसके ऊपर झुक आया. वह लगभग गुर्राकर बोली, ‘‘मैं बहुत खराब लड़की हूं?”
‘‘आं.” प्रशान्त समझ नहीं पाया, क्या कहे?
‘‘आप समझते हैं, मेरे अन्दर धड़कता हुआ दिल नहीं है, मेरी कोई भावनाएं नहीं हैं?” उसकी आवाज में तरलता भरती जा रही थी. प्रशान्त अकाबका गया था और वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था. उसका मुंह रीना के खुले सीने के ऊपर झुका हुआ था, परन्तु उसने आंखें बन्द कर ली थीं. रीना के यौवन की एक मादक सुगन्ध प्रशान्त के नथुनों में भरती जा रही थी. कितनी मदहोश कर देने वाली सुगन्ध थी. रीना वाकई बहुत खूबसूरत और आकर्षक लड़की थी. कोई भी उस पर मर सकता था.
‘‘आप मुझसे बदला ले रहे हैं?” वह धमकाने के स्वर में बोली.
‘‘नहीं तो….” कुछ न समझकर भी प्रशान्त बोला, ‘‘कैसा बदला…?”
‘‘मासूम और भोले बनने का प्रयत्न मत करो. यह मेरी ही गलती थी, जो प्रथम मिलन में मैंने आपको मुझे छूने से मना किया था. वही गुस्सा अभी तक आपके मन में भरा हुआ है, है न!” प्रशान्त कुछ नहीं बोला, परन्तु वह जानता था कि सच यही था. रीना ने उसकी कमीज को अपने दाएं-बाएं खींचा कि उसके बटन तड़तड़ाकर टूट गये. रीना लगभग रुआंसी होकर बोली-
‘‘आप अपना गुस्सा इस तरह भी जाहिर कर सकते थे, जैसे मैंने अभी किया है. मुझे तड़पाने में आप को मजा आ रहा था. आप जान-बूझ कर मुझे उपेक्षित करते रहे, और मैं बिना आग के सुलगती रही. क्या आप नहीं समझते हैं कि जब लड़की के मुंह से लड़के के लिए न निकलता है तो वह अन्दर से हां कहती है. प्यार करने वाले इस बात को अच्छी तरह समझते हैं. आपने समझने का प्रयास क्यों नहीं किया?” अब तक अन्धेरा पूरी तरह घिर आया था. इण्डिया गेट और राजपथ पूरी तरह से बिजली की रोशनी से जगमग हो उठा था, परन्तु उनके इर्द-गिर्द अन्धेरा था. रीना ने लपककर प्रशान्त के दोनों हाथ अपने सीने पर रख दिए और गिड़गिड़ाती हुई बोली, ‘‘आज आपने मेरा घमण्ड तोड़ दिया है. मैं हार गई, अब मैं आपकी हूं. आप मेरे साथ जोर-जबरदस्ती करते, मेरे शरीर के साथ खिलवाड़ करते तो मुझे अच्छा लगता.” फिर वह हांफने लगी, जैसे बहुत लंबी दौड़ लगाकर आई हो. लेकिन यह शारीरिक थकन की वजह से नहीं हो रहा था. उसके अंदर एक ज्वालामुखी धधक रहा था, जिसकी आंच में वह तप रही थी. उसने प्रशान्त को अपनी तरफ खींचते हुए कहा, ‘‘लीजिए मैं आपके सामने सम्पूर्ण रूप से उपस्थित हूं, जैसे चाहे मुझे प्यार करें. अब मैं किसी भ्रम में नहीं जीना चाहती. अब तक मैं एक वीरान रेगिस्तान में भटक रही थी, अब और ज्यादा भटकना नहीं चाहती. मेरी भावनाओं को समझो और मुझे प्यार करो. बहुत तड़प चुकी हूं मैं…झूठे अभिमान को लेकर मैं अब तक जी रही थी. ये भी कोई जीना है. मैं ठूंठ नहीं हूं, प्रशान्त, मैं ठूंठ नहीं हूं. देखो मेरे ऊपर भी प्यार की कोंपलें अंकुरित हो रही हैं.” उसकी रुलाई फूट पड़ी थी. उसने जोर से प्रशान्त के हाथों को अपने सीने पर दबा दिया. प्रशान्त के शरीर को एक तगड़ा झटका लगा, जैसे उसने आग के दो बड़े अंगारों पर अपने हाथ रख दिए हों. उसकी बोलती बंद थी, परन्तु शरीर कांप रहा था.
रीना लगभग उसके ऊपर गिर पड़ी. उसके भरे-भरे होंठ प्रशान्त के होंठों पर टिक गये. प्रशान्त जब तक पीछे हटता, रीना ने उसके होंठों को अपने मुंह में भर कर दबा लिया था. इसके साथ ही उसकी आंखों से गरम-गरम आंसू उन दोनों के होंठों के ऊपर गिरकर मीठेपन में खारेपन का एहसास दिला रहे थे, जैसे उन्हें आगाह कर रहे हों कि प्यार में अगर अद्‌भुत मिठास होती है, तो उसमें यथार्थ का खारापन भी होता है. अब प्रशान्त के हाथ रीना की नंगी पीठ पर फिसल रहे थे. ठूंठ में सचमुच कोंपलें निकल आई थीं.
-राकेश भ्रमर

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र:

खडीबोली हिन्दी के जन्मदाता जिन्हें खडीबोली हिन्दी-लेखन
का दिव्य आशीर्वाद दिया स्वयं महाप्रभु जगन्नाथ ने

१५ साल की उम्र में वे अपने माता-पिता के साथ एकबार जगन्नाथ पुरी भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए आये। भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये और उन्हीं के दिव्य आशीष ने खडी बोली हिन्दी में लेखन का उन्होंने श्रीगणेश किया। जगत के नाथ से उन्होंने हिंदी गद्य को एक नई शैली प्रदान की जो खडीबोली हिन्दी के रुप में विश्वविख्यात है। उन्हें हिन्दी साहित्य का पितामह तथा खडी बोली हिन्दी का जन्मदाता कहा जाता है। उनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था और ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी असाधारण लेखन प्रतिभा का सदुपयोग किया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ उन्होंने ही किया। ऐसी बात नहीं है कि उनके पूर्व हिन्दी में नाटक-लेखन नहीं था परन्तु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ही हिंदी नाटक-लेखन की नींव को और अधिक सुदृढ़ बनाया। वे आजीवन एक सफल कवि, व्यंग्यकार, नाटककार, पत्रकार तथा साहित्यकार रहे। वे मात्र ३४ वर्ष की उम्र में ही खडीबोली हिन्दी का विशाल साहित्य रचकर अमर हो गये।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म ०९सितंबर, १८५० को बनारस, उत्तरप्रदेश में हुआ। वे खडीबोली हिन्दी के जन्मदाता थे जिन्हें खडीबोली हिन्दी में लेखन का दिव्य आशीर्वाद स्वयं महाप्रभु जगन्नाथ ने दिया। वे जब मात्र पांच साल के थे तब सबसे पहले उनकी माताजी की मृत्यु हो गई और जब वे मात्र दस साल के थे तभी उनके पिताजी चल बसे। उनका बाल्यकाल उनके माता-पिता के वात्सल्य तथा प्यार से वंचित रहा। उनकी विमाता ने उनको खूब सताया। उनके पिता गोपाल चंद्र भी एक कवि थे। पिता की प्रेरणा से ही वे लेखन क्षेत्र में आगे बढ़े। बहुत कम उम्र में ही वे अपने माता-पिता को खो दिये लेकिन उनके जीवन की सबसे रोचक घटना यह रही कि मात्र १५ साल की उम्र में वे अपने माता-पिता के साथ एकबार जगन्नाथ पुरी भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए आये। भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये और उन्हीं के दिव्य आशीष ने खडी बोली हिन्दी में लेखन का उन्होंने श्रीगणेश किया।
जगत के नाथ से उन्होंने हिंदी गद्य को एक नई शैली प्रदान की जो खडीबोली हिन्दी के रुप में विश्वविख्यात है। उन्हें हिन्दी साहित्य का पितामह तथा खडी बोली हिन्दी का जन्मदाता कहा जाता है। उनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था और ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी असाधारण लेखन प्रतिभा का सदुपयोग किया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ उन्होंने ही किया। ऐसी बात नहीं है कि उनके पूर्व हिन्दी में नाटक-लेखन नहीं था परन्तु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ही हिंदी नाटक-लेखन की नींव को और अधिक सुदृढ़ बनाया। वे आजीवन एक सफल कवि, व्यंग्यकार, नाटककार, पत्रकार तथा साहित्यकार रहे। वे मात्र ३४ वर्ष की उम्र में ही खडीबोली हिन्दी का विशाल साहित्य रचकर अमर हो गये। उनकी वैश्विक चेतना भी प्रखर थी। उन्हें अच्छी तरह पता था कि विश्व के कौन से देश कैसे और कितनी उन्नति कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने १८८४ में उत्तरप्रदेश के बलिया के दादरी मेले में ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ पर एक सारगर्भित तथा ओजस्वी भाषण दिया जिसमें उन्होने लोगों से कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्यागकर अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग-धंधों को विकसित करने, आपसी सहयोग एवं एकता को सतत बढाने की अपील करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने का आह्वान किया।देश की गरीबी, पराधीनता, अंग्रेजी शासकों के अमानवीय व्यवहार तथा शोषण का चित्रण करना ही वे अपने खडी बोली हिन्दी में साहित्य रचना का लक्ष्य बनाये। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में भी उन्होंने अपनी असाधारण लेखन प्रतिभा का भरपूर उपयोग किया।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। वे एक संवेदनशील साहित्यकार थे। उनका सबसे लोकप्रिय नाटक सत्य हरिश्चन्द नाटक आज भी सत्यमार्ग पर आजीवन चलने का संदेश देता है।उनका नाटक भारत दुर्दशा उन दिनों के भारत की वास्तविक झलक है। उनकी रचनाओं में प्राचीन तथा नवीन का अनोखा सामंजस्य है। एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार का असामयिक निधन ६जनवरी,१८८५ हो गया।अपने साहित्यिक योगदानों के बदौलत १८५७ से लेकर १९०० तक को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है।उनकी बढती लोकप्रियता के प्रभावित होकर उन्हें बनारस के विद्वानों ने १८८० में उन्हें भारतेन्दु की उपाधि प्रदान की।वे आज भी हमारे बीच हिन्दी खडीबोली के जन्मदाता के रुप में अमर हैं।
-अशोक पाण्डेय

जमी हुई झील

पार्टी देर रात तक चली, शायद ढाई बज गए होंगे। बस, कुछ गिने-चुने घंटे बचे होंगे सुबह होने में। मैंने मनसा के स्टूडियो में पडे दीवान पर बस कमर सीधी भर की होगी कि भिनसारे की रोशनी चमकने लगी। कैट भी चाय पीती दिखाई दी और कुछ देर बाद ही हम चल दिये। मनसा ने इस बार फिर बस तक छो़ड। बस में च़ढकर वह मेरे पास आया और फुसफुसा कर बोला,’माफ करना दोस्त। तुम दोनों को अलग कमरा नहीं दे पाया। मेहमान कुछ ज्यादा ही रुक गए थे।’ ‘नहीं यार, ‘ मैंने कहा, ‘अलग कमरे की कोई जरूरत ही नहीं थी। ‘