संपादकीय

मराठी बनाम हिंदी विवाद

मुंबई एक ऐसी माया नगरी है, जिसे हर वर्ग, हर जाति, हर भाषा ने अपने खून-पसीने से बनाया है। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सिर्फ ‘हमने’ बनाया। मराठी ने आत्मा दी, उत्तर भारतीयों ने मज़बूती, गुजराती-मारवाड़ियों ने दौलत, दक्षिण भारतीयों ने दिमाग, और सब मिलकर इसे एक महानगर बनाया। ‘क्या इन सभी लोगों को मुंबई में मराठी बोलना ज़रूरी (compulsory) होना चाहिए?’ तो इसका उत्तर संतुलन और समझदारी से देना ज़रूरी है। संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण से भारत एक बहुभाषी लोकतंत्र देश है।

भारत अनेक भाषाओं का देश है। संविधान की आठवीं अनुसूची में २२ भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। हिंदी भारत की राजभाषा है, जबकि मराठी महाराष्ट्र की राजकीय भाषा है। दोनों भाषाओं का अपना इतिहास, साहित्य, संस्कृति और आत्मा है। परंतु आज हम इस विमर्श में इन दो भाषाओं को प्रतिद्वंदी की तरह देख रहे हैं – यह दुर्भाग्यपूर्ण है। विवाद का मुख्य कारण है – रोजगार और प्रशासन में भाषा का वर्चस्व, शहरीकरण और उत्तर भारतीय प्रवासियों का महाराष्ट्र में आगमन, सरकारी स्तर पर हिंदी को बढ़ावा और स्थानीय लोगों को अपनी भाषा से असुरक्षा और कुछ राजनैतिक दलों द्वारा भाषाई पहचान को उकसाना ये सारे कारण भाषाओं के बीच नहीं, बल्कि राजनीति और समाज के बीच पैदा हुए तनाव को दर्शाते हैं।

हिंदी ने पूरे भारत में एक संपर्क भाषा (link language) की भूमिका निभाई है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं को दबाया जाए। मराठी साहित्य, रंगमंच, सिनेमा और पत्रकारिता ने भारत को कई रत्न दिए हैं – पु. ल. देशपांडे, विजय तेंडुलकर, और आज के फिल्म निर्माता नितीन देसाई जैसे नाम गौरव का कारण हैं। समस्या तब आती है जब नौकरी, शिक्षा और शासन में एक भाषा को ज़रूरत से ़ज्यादा बढ़ावा दिया जाए और दूसरी को उपेक्षित किया जाए।

‘मुंबई जैसे शहर को आगे बढ़ाने में या मुंबई की सफलता एक सामूहिक प्रयास रही है, जिसमें कई वर्गों, समुदायों, और क्षेत्रों ने अपनी भूमिका निभाई है।  मराठी मानूस (स्थानीय निवासी – मूल महाराष्ट्रीयन समाज): कोलियों (मछुआरे), अगड़ी-पिछड़ी जातियों, कामगार वर्ग ने शुरुआती समय में मुंबई की नींव रखी। मिल मज़दूर, BEST कर्मचारियों, सरकारी कर्मचारियों में बड़ी संख्या मराठी लोगों की रही। शिवाजी पार्क, दादर, परेल जैसे इलाकों में सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता का गढ़ था। मराठी साहित्य, रंगमंच, पत्रकारिता ने मुंबई की पहचान गढ़ी। स्थानीय मराठी समाज ने मूल चरित्र और आत्मा को गढ़ा।

बिहारी, पूर्वांचली, उत्तर प्रदेश के लोग बड़े पैमाने पर रेलवे, टैक्सी-ऑटो, निर्माण, सब्ज़ी-बाज़ार, सुरक्षा गार्ड जैसे क्षेत्रों में आए और मेहनत की। दादर, धारावी, कुर्ला, भायंदर, मीरा रोड, वसई में इनकी बड़ी बस्तियाँ हैं। श्रमिक और सेवक के रूप में इन्होंने हर शहरवासी की ज़िंदगी को आसान बनाया। जिन्होंने हर स्तर की मेहनतकश नौकरियों को संभाला। मुंबई को आर्थिक राजधानी बनाने में गुजराती और मारवाड़ी व्यापारी वर्ग का बड़ा हाथ रहा है। स्टॉक मार्केट, कपड़ा व्यापार, ज्वेलरी, फिल्म फाइनेंसिंग, हीरा कारोबार आदि पर इनका कब्ज़ा रहा। बड़े उद्योगपति – अंबानी, अदानी, बिड़ला, गोयनका आदि इसी वर्ग से हैं। मुंबई को धन-आधारित, बिजनेस- frendly शहर बनाने में इनका बड़ा योगदान है।

 शिक्षा, तकनीक, बैंकिंग, सॉफ्टवेयर, डॉक्टरी, प्रशासन जैसे क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय लोगों का बहुत योगदान है। चेंबूर, माटुंगा, किंग्स सर्कल जैसे क्षेत्र इनके सांस्कृतिक केंद्र रहे हैं। मुंबई के बौद्धिक और शैक्षणिक स्तर को ऊंचा किया। देशभर से कलाकार, लेखक, गायक, तकनीशियन आए और मुंबई को मनोरंजन की राजधानी बना दिया। इसमें भी हर भाषा और क्षेत्र के लोग हैं – मराठी, पंजाबी, बंगाली, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय आदि।

मुंबई एक ऐसी माया नगरी है, जिसे हर वर्ग, हर जाति, हर भाषा ने अपने खून-पसीने से बनाया है। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सिर्फ ‘हमने’ बनाया। मराठी ने आत्मा दी, उत्तर भारतीयों ने मज़बूती, गुजराती-मारवाड़ियों ने दौलत, दक्षिण भारतीयों ने दिमाग, और सब मिलकर इसे एक महानगर बनाया। ‘क्या इन सभी लोगों को मुंबई में मराठी बोलना ज़रूरी (compulsory) होना चाहिए?’ तो इसका उत्तर संतुलन और समझदारी से देना ज़रूरी है। संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण से भारत एक बहुभाषी लोकतंत्र देश है।

संविधान की धारा १९(१)(a) हर नागरिक को स्वतंत्र रूप से बोलने की स्वतंत्रता देता है – जिसमें भाषा का चयन भी शामिल है। महाराष्ट्र की राजकीय भाषा मराठी है, इसलिए प्रशासनिक और शैक्षणिक मामलों में मराठी को प्राथमिकता दी जाती है — लेकिन यह अन्य नागरिकों पर थोपना अनुचित है। सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से अगर कोई व्यक्ति महाराष्ट्र में रहकर मराठी सीखता है, तो यह उसका सम्मान और जुड़ाव दर्शाता है। जैसे – कोई अगर तमिलनाडु में बसता है और तमिल सीखता है, तो वह स्थानीय संस्कृति से खुद को जोड़ पाता है। पर यह सीखना नैतिक कर्तव्य हो सकता है, न कि कानूनी बाध्यता।

भाषा प्रेम अगर सम्मान से हो तो वह संस्कृति को मजबूत करता है, लेकिन अगर जबरदस्ती हो तो वह विरोध और विभाजन को जन्म देता है। स्थानीय लोगों को सम्मान मिलना चाहिए, उनकी भाषा और संस्कृति की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। जो बाहर से आए हैं, उन्हें मराठी सीखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए – पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। राज्य सरकार मराठी को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, प्रचार, और प्रोत्साहन के ज़रिये काम करे – न कि दंड या धमकी के माध्यम से। मराठी सीखना – सम्मान का प्रतीक होना चाहिए, मजबूरी नहीं। मुम्बई सबकी है – मराठी मानूस की भी, और उस प्रवासी की भी जो इसे अप्ानाता है। हमें चाहिए कि मराठी को बढ़ावा दें – पर भाईचारे और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ। संविधान में सबको रहने का हक़ है, पर जहाँ रहते हैं वहां की मिट्टी को भी अपनाना चाहिए। महाराष्ट्र में मराठी जानना शान की बात है, शर्म की नहीं। ‘रहेंगे भी, सीखेंगे भी’ – यही भारत की सच्ची विविधता है।                              – मंगला नटराजन

महानायक रतन टाटा

रतन टाटा न केवल एक महान उद्योगपति हैं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके मूल्यों और सिद्धांतों ने उन्हें आज के समय का प्रेरणास्रोत बना दिया है। उनकी दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाने का अद्वितीय दृष्टिकोण उन्हें अन्य उद्योगपतियों से अलग करता है। उनका जीवन संघर्ष, सफलता और सादगी का प्रेरणादायक उदाहरण है, जिसे हर पीढ़ी को सीखने और अनुसरण करने की आवश्यकता है। रतन टाटा भारतीय उद्योग जगत के लिए एक धरोहर हैं, और उनके योगदान से आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिलती रहेगी।
१९९१ में, रतन टाटा ने जे.आर.डी. से नए नेता के रूप में पदभार संभाला। टाटा, टाटा संस के नेता हैं, जो टाटा समूह की मालिक कंपनी है। इस दौरान, भारत में अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव हुए, और रतन के पास इन महत्वपूर्ण बदलावों के माध्यम से समूह का नेतृत्व करने का कठिन काम था। उन्होंने परिचालन को और अधिक सुचारू रूप से चलाने, मुख्य व्यवसायों पर ध्यान केंद्रित करने और दुनिया भर में बढ़ने के लिए एक परियोजना शुरू की। उनके मार्गदर्शन में टाटा समूह ने अपनी योजनाओं में बड़े बदलाव किए। रतन ने कारोबार के उन हिस्सों को बेच दिया जो उतने महत्वपूर्ण नहीं थे और इसके बजाय स्टील, कार, फोन और कंप्यूटर सेवाओं जैसे उद्योगों पर ध्यान केंद्रित किया। वह टाटा को पूरी दुनिया में एक बड़ी कंपनी बनाना चाहते थे और उन्होंने यह काम बखूबी किया।
नुसीरवानजी टाटा (१८२२–१८८६): नुसीरवानजी टाटा, टाटा परिवार के पितामह थे. उनकी पत्नी जीवनबाई कावसजी टाटा, और उनके पांच बच्चे थे जमशेदजी टाटा, रतनबाई टाटा, मानेकबाई टाटा, और वीरबाईजी टाटा थे. नुसीरवानजी टाटा के पुत्र और टाटा समूह के संस्थापक थे. जमशेदजी टाटा ने १८७० के दशक में मध्य भारत में एक कपड़ा मिल से टाटा समूह की शुरुआत की. उन्हें ‘भारतीय उद्योग के जनक’ के रूप में जाना जाता है. उन्होंने स्टील (टाटा स्टील), होटल (ताजमहल होटल), और जलविद्युत जैसे प्रमुख उद्योगों की नींव रखी. रतन टाटा ने टाटा समूह को दुनिया भर में मशहूर करके एक बड़ा काम किया। उन्होंने कई महत्वपूर्ण खरीद की, जिससे टाटा समूह पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। २००० में टाटा टी ने ब्रिटेन से टेटली टी को खरीदा, जिससे यह दुनिया की सबसे बड़ी चाय कंपनियों में से एक बन गई। इसके बाद २००४ में टाटा मोटर्स ने दक्षिण कोरियाई ट्रक कंपनी देवू कमर्शियल व्हीकल्स को खरीदा।
२००७ और २००८ में टाटा ने कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण खरीददारी की। उन्होंने ब्रिटिश स्टील निर्माता कोरस और ब्रिटिश कार ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर को खरीदा। इन बदलावों ने समूह की अंतरराष्ट्रीय स्थिति को पूरी तरह से बदल दिया और बाजार में उनकी पहचान को और मजबूत बना दिया। रतन टाटा को नए विचार और तकनीक को बेहतर बनाना बहुत पसंद था। उन्होंने टाटा समूह के भीतर नए विचार लाने और चीजों को बेहतर बनाने की संस्कृति को बढ़ावा दिया। उनके द्वारा बनाई गई सबसे मशहूर चीजों में से एक टाटा नैनो कार थी, जो २००८ में आई थी। दुनिया की सबसे कम कीमत वाली कार के रूप में विज्ञापित, नैनो को कई भारतीय परिवारों को सस्ता परिवहन देने के लिए बनाया गया था। हालाँकि इसमें कुछ समस्याएँ थीं, लेकिन नैनो कार दिखाती है कि कैसे रतन टाटा का सभी के लिए नवाचार का विचार सफल रहा।
अपने व्यवसाय के अलावा, कई लोग रतन टाटा की दूसरों की मदद करने और समाज के लिए अच्छा करने के प्रति समर्पण के लिए प्रशंसा करते हैं। उनके नेतृत्व में टाटा समूह ने विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से समाज की मदद करना जारी रखा। टाटा ट्रस्ट्स, जो टाटा संस में अधिकांश शेयरों का मालिक है, ने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों का समर्थन करने के लिए धन देने में बड़ी भूमिका निभाई है। रतन टाटा कई चैरिटी कार्यों में सीधे तौर पर शामिल रहे हैं। उन्होंने कोलकाता में टाटा मेडिकल सेंटर बनाने में मदद की, जो कैंसर का अच्छा इलाज करता है। उन्होंने आपदाओं, खेती और स्कूलों के लिए पैसे और सहायता देकर भारत और अन्य जगहों पर कई लोगों की मदद की है। उनकी मदद ने कई लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव किया है।
रतन टाटा ने व्यवसायों और समुदायों के लिए जो अच्छे काम किए हैं, उन्हें कई लोगों ने देखा और सराहा है। उन्होंने पद्म भूषण (२०००) और पद्म विभूषण (२००८) जैसे कई पुरस्कार और सम्मान जीते हैं, जो भारत में नागरिकों को दिए जाने वाले दो सर्वोच्च पुरस्कार हैं। उन्हें अपने व्यवसाय और दान कार्यों के लिए अन्य देशों और संगठनों से और भी पुरस्कार मिले, साथ ही मानद उपाधियाँ भी मिलीं।
२०१२ में रतन टाटा ने टाटा संस के बॉस का पद छोड़ दिया और साइरस मिस्त्री को कमान सौंप दी। लेकिन, उनका प्रभाव और स्थायी प्रभाव अभी भी टाटा समूह को आकार देता है। २०१६ में, साइरस मिस्त्री को हटाए जाने के बाद वे अस्थायी बॉस के रूप में वापस आए, जिससे पता चलता है कि उन्हें अभी भी कंपनी की परवाह है। जब चीजें बदल रही थीं, तब समूह को एक साथ रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
भले ही रतन टाटा सेवानिवृत्त हो चुके थे , फिर भी वे अलग-अलग भूमिकाओं में व्यस्त रहते थे। वे अभी भी टाटा संस के मानद चेयरमैन थे और सलाह देने और धर्मार्थ कार्य करने में सक्रिय थे। उन्हें नए व्यवसायों में निवेश करना और उन युवाओं की मदद करना पसंद था, जो अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि उन्हें नए विचार और व्यवसायों को बढ़ने में मदद करना वाकई पसंद था।

चुनावी बांड योजना…

यूं तो चुनाव में चंदा देना आम बात है। लेकिन ये चंदा कौन दे रहा है? कितना दे रहा है, किसे दे रहा है और क्यों दे रहा है? ये सवाल हर चुनाव में उठते रहे हैं। इलेक्ट्रॉरल बांड का मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को मिले चंदे के ब्योरे की जांच करेगा। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग से समीक्षा के लिए चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों के वित्तपोषण का विवरण तैयार करने को कहा। बॉन्ड के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान याची के वकील प्रशांत भूषण ने दलील दी है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है। इससे लोगों के जानने के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। चुनाव आयोग तक को पता नहीं होता। यह जानने का लोगों को मौलिक अधिकार है।
बजट २०१७ के दौरान संसद में तत्तकालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अभी तक चुनावी चंदा में कोई पारदर्शिता नहीं है। अगर नगद चंदा दिया जाता है तो धन का स्रोत, देने वाले और किसे दिया जा रहा है। कोई नहीं जान पाता है। अब चंदा देने वाला बैंक एकाउंट के जरिए ही चुनावी बांड खरीद सकेगा और राजनीतिक दल भी चुनाव आयोग को आयकर दाखिल करते हुए ये बताएंगे कि उन्हें कितना चंदा चुनावी बांड के जरिए मिला है। सरकार की माने तो इन बांड का मकसद राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाना है। केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ की धारा २९ए के तहत रजिस्टर्ड हैं। उन्होंने पिछले आम चुनाव में लोकसभा या विधानसभा के लिए डाले गए वोटों में कम से कम १ प्रतिशत वोट हासिल किए हों, वे ही चुनावी बांड हासिल करने के पात्र हैं।
चुनावी बांड योजना को अंग्रेजी में इलेक्टोरल बॉन्डस स्कीम कहते हैं। ये भारतीय स्टेट बैंक की नई दिल्ली, गांधीनगर, चंडीगढ़, बेंगलुरु, हैदराबाद, भुवनेश्वर, भोपाल, मुंबई, जयपुर, लखनऊ, चेन्नई, कलकत्ता और गुवाहाटी समेत २९ शाखाओं में मिलते हैं। बीजेपी को चुनावी बांड योजना बनने के बाद से पांच वर्षों में बांड के माध्यम से दिए गए धन का आधे से अधिक (५७ प्रतिशत) भाजपा के पास गया है। चुनाव आयोग को दिए खुलासे के मुताबिक, पार्टी को २०१७ से २०२२ के बीच बॉन्ड के जरिए ५,२७१.९७ करोड़ रुपये मिले। मार्च २०२२ को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में भाजपा को चुनावी बांड में १,०३३ करोड़ रुपये, २०२१ में २२.३८ करोड़ रुपये, २०२० में २,५५५ करोड़ रुपये और २०१९ में १,४५० करोड़ रुपये मिले। पार्टी ने वित्तीय वर्ष के लिए प्राप्तियों में २१० करोड़ रुपये की भी घोषणा की। ​​कांग्रेस को २०२२ तक बेचे गए कुल चुनावी बांड का ९५२ करोड़ रुपये या १० प्रतिशत प्राप्त हुआ। कांग्रेस को वित्तीय वर्ष २०२२ में चुनावी बांड से २५३ करोड़ रुपये, २०२१ में १० करोड़ रुपये, २०२० में ३१७ करोड़ रुपये मिले। २०१९ में ३८३ करोड़ रुपये मिले। तृणमूल कांग्रेस, जो २०११ से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है, ने पूरे वर्षों में कुल ७६७.८८ करोड़ रुपये के योगदान की घोषणा की है, जो भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे स्थान पर है। मार्च २०२२ में खत्म होने वाले वित्तीय वर्ष में तृणमूल कांग्रेस को ५२८ करोड़ रुपये, २०२१ में ४२ करोड़ रुपये, २०२० में १०० करोड़ रुपये और २०१९ में ९७ करोड़ रुपये मिले। ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ने २०१८-२०१९ और २०२१-२०२२ के बीच चुनावी बांड में ६२२ करोड़ रुपये की घोषणा की। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, २००० से राज्य में प्रभुत्व रखने वाली पार्टी को योजना के शुरुआती वर्ष में चुनावी बांड के माध्यम से कोई दान नहीं मिला। हालाँकि, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि उस राशि का कितना हिस्सा केवल बांड से प्राप्त हुआ है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) के अनुसार, राष्ट्रीय पार्टियों ने चुनावी बांड दान में उल्लेखनीय वृद्धि का अनुभव किया, जिसमें वित्त वर्ष २०१७-१८ और वित्त वर्ष २०२१-२२ के बीच ७४३ प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। इसके विपरीत, इसी अवधि के दौरान राष्ट्रीय पार्टियों को कॉर्पाेरेट चंदा केवल ४८ प्रतिशत बढ़ा। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) १,००० रुपये, १०,००० रुपये, १ लाख रुपये, १० लाख रुपये और १ करोड़ रुपये के मूल्यवर्ग में बांड जारी करता है। इस साल जुलाई में एडीआर ने कहा था कि २०१६-१७ और २०२१-२२ के बीच राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त सभी दान का आधे से अधिक हिस्सा चुनावी बांड के माध्यम से था और भाजपा को अन्य सभी राष्ट्रीय दलों की तुलना में अधिक धन प्राप्त हुआ। इसमें कहा गया है कि २०१६-१७ और २०२१-२२ के बीच सात राष्ट्रीय दलों और २४ राज्य दलों को लगभग १६,४३७ करोड़ रुपये का दान प्राप्त हुआ। इसमें से ९,१८८.३५ करोड़ रुपये लगभग ५६ प्रतिशत – चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त हुए। पहले चुनावी बॉन्ड के जरिये सियासी दलों तक जो धन आता था उसे वो गुप्त रख सकती थीं. लेकिन पिछले दिनों इस पर विवाद हुआ. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सभी राजनीतिक दलों को इलेक्शन कमीशन के समक्ष इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी देनी होगी. इसके साथ दलों को बैंक डीटेल्स भी देना होगा। अदालत ने कहा है कि राजनीतिक दल, आयोग को एक सील बंद लिफाफे में सारी जानकारी दें।
इलेक्टोरल बॉन्ड शुरू से ही विवादों में है। केंद्र ने २९ जनवरी २०१८ को इसे लागू किया था । तर्वâ था कि इसके जरिए डोनेशन से चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार होगा। अब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर तमाम खामियां गिनाई गई हैं। अदालत में चुनाव आयोग ने भी बताया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के कारण राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग की पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच इसका परीक्षण कर रही है और उम्मीद है कि आम चुनाव से पहले इस पर सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला आ जाए। जो भी फैसला होगा वह आने वाले दिनों में चुनावी फंडिंग की दिशा और दशा तय करने में अहम होगा। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि चंदा लेने का ये तरीका लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। वेस्टमिंस्टर विश्विद्यालय में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेमोक्रेसी की डायरेक्टर निताशा कौल फाइनेंशियल टाइम्स के लिए लिखे एक लेख में बताया कि भारत में चुनाव किस हद तक महंगा होता है। वो आंकड़ों के हवाले से लिखती हैं कि २०१९ के आम चुनाव में २०१४ की तुलना में दोगुना खर्च हुआ था। भारत का आखिरी आम चुनाव २०१६ के यूएस प्रेसिडेंट इलेक्शन से ज्यादा महंगा था। इससे पता चलता है कि चुनाव में रुपयों का बोलबाला बढ़ा है।