ठंडी दीवारें

आकर्षण है। हम दोनों शाम के ताँबा रंगे सूर्य को उसमें डूबते हुए देखते और फिर जब चाँद की टुकड़ी दूसरी तरफ से उसकी लहरों में नाचने लगती, ”हमारी बातें समाप्त हो जातीं और हम उसकी ओर देखते ही रहते। चिनाब के किनारे चाँदनी रात के जादू का मैं बयान नहीं कर सकती।” और यह कहकर कान्ता ने एक लम्बी आह भरी, जैसे उसके अन्दर से कुछ धुआँ-सा बाहर निकला हो। उसने अपने होंठों को जीभ से तर किया। सन्तोष की आँखें कान्ता के चेहरे पर गड़ गयीं जिसमें उसने पहली बार खुशी की थोड़ी-सी चमक देखी थी। वह अवाक् बैठी कान्ता की बात सुनती रही।
”चिनाब को तो वर्षा में देखना चाहिए जब उसका दूसरा किनारा ही नहीं दिखाई पड़ता। गढ़गढ़ करती, मटियाले पानी की फुँफकारती लहरें और उन पर तैरते झाग के गोले… इस दृश्य का केवल देखने वाला आनन्द उठा सकता है। छोटी होते हुए भी मैं पर्वों और बैशाखी को चिनाब पर जाया करती थी पर तब मेरी सूझ बच्चों जैसी थी। अब चिनाब की लहरों के साथ मेरी छाती में भी भाव-उछाल उठते और मैं उन पर मोहित हुई, उनमें बँधी हुई कई बार यहाँ पहुँच जाती। फिर जब निसार अहमद मेरे साथ होता, उन पलों का तो कहना ही क्या!”
कान्ता ने चुन्नी से पलकें पोंछ लीं, उनके कोनों में नमी-सी उभर आयी थी। सन्तोष के लिए यह भी आश्चर्यजनक था कि कान्ता का पथरीला चेहरा रो सकने की सामर्थ्य भी रखता है। ”एक दिन रहमत बीबी ने जिसे मैं भी अम्मा कहने लगी थी, मुझे अपने पास बैठाकर बड़े प्यार से कहा, ”अब मैं ही तेरी अम्मा हँ। पहली माँ की तू समझ, वफात (मौत) हो चुकी है। तेरे लिए मेरा भी कुछ फर्ज है। अब मैं तुझे इस तरह और नहीं रख सकती।” मैं क्या कहती! चुप रही। अम्मा इस बीच मेरी तरफ ध्यान से देखती रही। मेरी आँखों के आगे कई पुरानी और नई फिल्में चल रही थीं। अम्मा ने ही मेरी चुप्पी को तोड़ा, ”अगर तुझे एतराज न हो…” उसने प्रश्नवाचक नजरें मुझ पर फेंकी। मेरी छाती धकधक करती रही। ”मैं तुझे अपने से अलग नहीं कर सकती। यह खुदा ने मोह भी क्या चींज बनायी है? तेरा निकाह मैं निसार अहमद के साथ करना चाहती हँ। तुझे कबूल है?”
”मैं खुदा से और क्या माँग सकती थी! चुप रही। परन्तु मेरी आँखों से अम्मा को जवाब मिल गया। और, सन्तोष, तूने यह भी कभी नहीं देखा होगा कि एक ही औरत एक समय माँ भी हो सकती है और सास भी, एक ही आदमी अब्बा भी हो सकता है और ससुर भी। मेरा निकाह जिस धूमधाम से उन्होंने किया, वह मैं तुझे क्या बताऊँ। शायद ही बयान कर सकूँ।”
सन्तोष को कान्ता के चेहरे पर एक रोशनी-सी बिखरी दिखाई दी। ईश्वरदास एकदम चौंककर उठा। बाहर दरवाजे को किसी ने जोर से खटखटाया था। पर उसे कोई भी दिखाई न दिया। साये गहरे होने लगे पर ताप अभी भी कम न हुआ था। उसकी आँखों से नींद भी नहीं गयी थी। मोहनलाल एक दिन उससे कहने लगा, ”भाई साहब, आपसे एक सलाह लेनी है। कान्ता का क्या करें? वह हर समय उदास रहती है, किसी से बोलती नहीं। उसकी माँ हर समय खीझती रहती है।”
ईश्वरदास उनके घर जाकर बैठा ही था कि पास खड़ी मायावन्ती बिलख पड़ी, ”भाई साहब, परमात्मा से हमने माँगा तो यही कुछ था पर उसे हमारी माँग ही ठीक समझ नहीं आयी। हे भगवान! कहीं यह लड़की मर ही जाती। नहीं तो यह बरामद ही न होती और हमें बता देते कि कान्ता फसादों में ही मर गयी है!” इतना कहकर वह फिर रोने लगी। उसे धैर्य देते हुए ईश्वरदास ने कहा, ”बहन, भगवान के काम के आगे किस का जोर है? इसमें ही भला होगा। हाँ आप कहें, भाई साहब, क्या पूछने लगे थे?” उसने मोहनलाल की ओर मुड़ते हुए कहा।
”मैंने सोचा था कि इसको कहीं ब्याह कर इसका जीवन नए सिरे से शुरू किया जाऐ पर कोई इससे विवाह करने को तैयार ही नहीं होता। जिसको एक बार पता लगता है कि इसे पाकिस्तान से आठ साल बाद बरामद किया है, वह दोबारा इस तरफ कान भी नहीं करता। किसी को इस बात पर जरा भी लिहाज नहीं आता कि इसके विवाह पर हम बहुत-कुछ देने को तैयार हैं। आप ही कोई घर बताएँ।” मोहनलाल ने निराश स्वर में कहा।
”आप सही कहते हैं। मैं आपके दुख को समझता हँ,” ईश्वरदास ने बात बदलते हुए कहा, ”किया क्या जाए! हमारा सारा समाज बेशक दागी पड़ा हो पर किसी अबला की चुन्नी पर निशान भी हो तो कोई उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। आप कहेंगे तो सही कि ईश्वरदास कैसी पागलों जैसी बातें करता है पर मैं कहँगा कि अगर हमें उन्हें स्वीकार ही नहीं करना था, तो किस मुँह से हम सरकार को उधर रही स्त्रियों और लड़कियों को बरामद करने को कहते है हमने इनको वहाँ-वहाँ से तो उखाड़ लिया जहाँ वे कई वर्षों में जैसे-तैसे अपनी जड़ें जमाने में सफल हो पायी थीं पर हम इनको इधर लगाने को तैयार नहीं।”
मोहनलाल ने ईश्वरदास की बात की हामी भरी और उसके मुँह से एक ठण्डी साँस निकल गयी।
मायावन्ती की आँखों से आँसू बहने लगे और वह उन्हें दुपट्टे से सुखाकर कहने लगी, ”पर अगर यह कहीं अब मर ही जाए तो मैं सुखी हो जाऊँ। हे भगवान, मैं तो जल गयी हूँ। मेरा कलेजा कोयला हो गया है। पैदा ही ना होती कान्ता की बच्ची। किस जनम का बदला लिया है हमसे?”
ईश्वरदास उनको धैर्य देता हुआ उठ खड़ा हुआ और चलते-चलते कहने लगा, ”पर, बहन, यह बात भूलकर भी कान्ता के सामने न कहना। बता, इसमें उसका क्या अपराध है? मैं भी कोई लड़का ढूढ़ूँगा, आप भी ढूँढ़ो, मिल-जुलकर कोई-न-कोई तो मिल ही जाएगा पर भगवान के नाम पर चन्द्रकान्ता का दिल न तोड़ना। आपको क्या पता, उस पर क्या बीत रही है! कभी उसके दिल की गहराइयों में भी झाँककर देखा है?” और वह जब कमरे से बाहर निकलने लगा, कान्ता उसे सामने से आती हुई मिली। उसे उसके पथराये हुए चेहरे पर तरस आ गया और उसने सहानुभूति से पूछा, ”क्या बात है, बेटी? क्या कर रही हो?” कान्ता का चेहरा और रूखा हो गया। वह कुछ न बोली। ईश्वरदास को उसकी आँखों में कई सूखे हुए आँसू लटकते नजर आये जैसे कि उसने उनकी सारी बातचीत सुन ली हो।
जब ईश्वरदास की आँख खुली, शाम के साये गहरे होने लगे थे और गरमी का ताप घट गया था। उसने उठकर कमरे का एक चक्कर लगाया और फिर अपनी जगह आकर बैठ गया। आज उसका दिमाग कुछ और नहीं सोच पा रहा था। वह फिर वहीं बहाव में बह गया। चन्द्रकान्ता की जीभ से तभी ताला खुलता जब वह सन्तोष के पास आती। ईश्वरदास की हमदर्दी ने उसका मन जीत लिया था। वह अपने दु:ख उनके सामने कह देती और जो बात उससे न कर सकती, वह सन्तोष से कर लेती। एक दिन वह सन्तोष के पास बैठी अपने घावों से पपड़ी उखाड़ बैठी और उनका असली रूप उसे दिखाने लगी।
”पिछले दो साल में जबसे मैं यहाँ आयी हँ, एक रात भी मैं आराम से नहीं सो सकी। दिन में हर समय उदासी के इस्पाती परदे की ओट में निसार अहमद खड़ा मुझसे बातें करता रहता है, जिसे केवल मैं ही सुन सकती हँ। रात को सपनों में वह मेरी बाँहें पकड़कर मुझे अपने साथ ले जाता है और चिनाब के किनारे की याद दिलाता है। इससे भी बढ़कर मेरे नईम और सलमा रो-रोकर मुझे आवाजें देते रहते हैं। उनके उतरे हुए चेहरों को मैं देख नहीं सकती। मैं माँ हूँ, चाहे चन्द्रकान्ता होऊँ या सईदा ख़ातून। इससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। ममता मेरी छाती में खींचातानी करती है, ममता मेरी आँखों को नम कर देती है, पर उसे किसी ने तोड़कर रख दिया है। बता तू मेरे लिए

कुछ नहीं कर सकती?”
सन्तोष ने चुन्नी मुँह में डाल ली और ठंडी साँस को अन्दर रोककर उसकी बात सुनती रही।
”यह बात आज मैं तुझे बताने लगी हूँ, यह मानकर कि दुनिया में तुझे छोड़कर इसका कभी किसी को पता नहीं लगेगा। मेरे खाविन्द निसार अहमद ने जो प्यार मुझे दिया, उसे इस जिन्दगी में तो मैं कभी भूल ही नहीं सकती। हमारी शादी के एक साल बाद हमारे घर नईम की पैदाइश हुई और उसके डेढ़ साल बाद सलमा मेरी बेटी की। हाय, अगर कभी मैं तुझे अपना जोड़ा दिखा सकती! फिर तू कहती, ”सईदा, जालिम! तू ऐसे खूबसूरत और प्यारे बच्चे छोड़ इधर कैसे आ गयी?” वैसे तो उस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं पर मैं तुझे बताने का यत्न जरूर करूँगी।
सलमा होने के बाद मेरे अब्बा की, खुदा उनकी रूह को जन्नत नसीब करे, वफात हो गयी थी। इसलिए निसार अहमद जैलदार बन गया। हमारी जमीन काफी थी। हमारे सारे इलाके में बड़ा रसूख था और चौधरी निसार अहमद का नाम हर तरफ इज्जत से लिया जाता था। सहज में कोई बड़े-से-बड़ा अफसर भी उन्हें नाराज नहीं कर सकता था। अपने इलाके की वह इज्जत-आबरू थे। यही कारण है कि जब कभी पाकिस्तान की पुलिस लड़कियाँ बरामद करने के लिए छापे मारती, वह हमारे घर की ओर मुँह करने का साहस भी न करती। उन्होंने मुझे स्वयं कई बार बताया कि ‘सिविल एंड मिलिटरी गजट’ और ‘नाए वक्त’ में मेरी बरामदी में मदद करने वाले को पाकिस्तान गवर्नमेंट ने एक हजार रुपया इनाम देने का एलान किया है। उन्होंने मुझे कई बार बड़े प्यार से भी पूछा कि क्या मैं हिन्दुस्तान में अपने माँ-बाप के पास जाना चाहती हूँ? अगर मैं चाहती तो वह खुद ही सरहद तक मुझे छोड़ जाते। जब कभी वह ऐसी बात कहने लगते, मैं उनके मुँह के आगे हाथ रखकर बिलखने लगती और कहती, ”अब शायद मैं आप पर भार हो गयी हँ। आप मुझे रखने को राजी नहीं। क्या आप मुझे नईम और सलमा की खातिर भी नहीं रख सकते?” वह मुझे सीने से लगा लेते और हम एक लम्बे बोसे में यह सारी बात भूल जाते।
पर एक दिन साफ आसमान में एक काली स्याह अँधेरी आयी। गाँव में शोर मच गया कि पुलिस की बहुत-सी गारद आयी है और साथ में पुलिस कप्तान भी है। उसके साथ हिंदुस्तानी पुलिस अफसर भी हैं। यह पार्टी हमारे घर के आगे पहुँची। उन्होंने पूछा, ”चौधरी साहब कहाँ हैं? यह बात अभी उनके मुँह में ही थी कि निसार अहमद भी बाहर से आ गया। बस, सन्तोष, बाकी की बात तो बताना भी मेरे लिए नामुमकिन है। मेरे खाबिन्द की एक बात न मानी गयी। मैंने मिन्नत की कि ‘मैं नहीं जाना चाहती, मुझे न ले जाओ।’ मैंने कहा, ”मेरे तो माँ-बाप मर चुके हैं। यह मेरे दो बच्चे हैं। इनकी तरफ देखो।” मैंने इल्तजा की, ”मैं चौधरी साहब की बीवी हूँ और अपनी मरजी से इनसे निकाह करवाया है।” मैं रोयी, ”चन्द्रकान्ता मर चुकी है और उसमें से मैंने, सईदा ख़ातून ने, जन्म लिया है। आप भूलते हैं।” मैंने नईम को आगे किया, ”आप इसकी शक्ल को मेरे से मिलाकर देखो। क्या यह आपको मेरा लख्तेजिगर नहीं लगता?” पर वहाँ तो केवल एक जवाब था, ”हम कानून के हाथों मजबूर हैं। हमें पाकिस्तान गवर्नमेंट की सख्त हिदायत है कि आपको वापस हिन्दुस्तान पहुँचाया जाए।”
उस समय सूरज डूब नहीं रहा था, मैं सच कहती हूँ, सन्तोष, उसका इनसानियत के कातिल खून कर रहे थे। वही लाल-काला खून सारे माहौल में बिखर गया था। जिस समय निसार अहमद ने मजबूर होकर मुझे जीप पर चढ़ने में मदद की, वह आप बेहोश होकर गिर पड़ा। रहमत अम्मा ने मेरी बलइर्‍याँ लीं। नईम और सलमा रो रहे थे। उन्हें पुलिस के सिपाही पीछे हटा रहे थे और अम्मा उन्हें तसल्लीr दे रही थी कि उनकी वालिदा कहीं बाहर जा रही है और शीघ्र ही वापस आ जाएगी। पर उन मासूमों के दिल को सच्चाई का अनुभव हो चुका था। मैं खुद उड़-उड़कर बाहर गिर रही थी। अचानक जीप चली और मेरे आगे कयामत का अँधेरा छा गया। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।
इतने में ईश्वरदास की रोटी आ गयी थी। वह चुपचाप खाने लगा। पर एक कौर भी उसके मुँह में नहीं जा पा रही थी। उसका हाथ वहीं रुक गया और वह विचारों के सागर में बह चला। ”पिताजी!” एक दिन सन्तोष ने उससे कहा, ”क्या आप अपने हाथ से मेरा गला दबाकर मुझे मार सकोगे?” वह कहने लगा, ”पागल तो नहीं हो गयी बेटी! भला ऐसा कौन पिता कर सकता है! साफ-साफ कह, क्या कहना चाहती है?” ”ऐसे माँ-बाप भी हैं जिनके अप्रत्यक्ष हाथ अपनी औलादों के गले घोंट देते हैं। कान्ता के दु:ख के हर पक्ष से आप जानकार हैं, मैं उसके लिए आपसे एक दया माँगती हूँ। मेरी विनती है, इनकार न करना। वह मर तो पहले ही रही है, अब आपसे ‘न’ कराकर मरेगी।” ”कुछ बताएगी भी, तोषी?”
”आपसे एक आदमी मिलना चाहता है, मिलाऊँगी मैं।”
”कौन?” ”निसार अहमद! नहीं, नहीं, अब्दुल हमीद।” ”निसार अहमद…वह किस तरह यहाँ आ गया? उसे कान्ता का सन्देश किसने भेजा?” एक ही साँस में कई प्रश्न पूछ लिए ईश्वरदास ने। ”इन सारे प्रश्नों की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उसकी बहन हूँ, समझ लो, मैं ही इसके लिए जिम्मेदार हूँ।” अचानक ईश्वरदास का हाथ घुटने से फिसलकर सामने थाली से जा टकराया और उसका किन्ाारा उसे चुभ गया। उसने धीरे-से हाथ को मला और सिर को झटककर फिर खाना खाने लगा। आज वह कैसे इन विचारों में घिरा हुआ था, वह स्वयं पर हैरान हो गया।
ईश्वरदास को मजिस्ट्रेट की कचहरी में पेश किया गया। उसे हथकड़ी लगी हुई थी और पुलिस ने उस पर फौजदारी का मुकदमा दायर किया था। उसे उसका अपराध बढ़कर सुनाया गया, जिसका सार यह था कि उसने कूचा नबीकरीम की चन्द्रकान्ता नाम की एक लड़की को वकील होने की हैसियत से जिला गुजरात की सईदा खातून होने की पुष्टि की है और इस तरह उसे धोखे से परमिट दिलवाया है। इस प्रकार चन्द्रकान्ता के पाकिस्तान भाग जाने की साजिश में उसका हाथ है। उसने देखा कि सामने मोहनलाल, मायावन्ती और सोहनलाल खड़े थे। और भी बहुत-से लोग मुकदमा सुनने आये हुए थे। मोहनलाल कह रहा था, ”देखो यारो, इस तरह का पड़ोसी तो भगवान दुश्मन को भी न दे। हमारी लड़की को इसने पाकिस्तान भगा दिया है। यह हिंदुस्तानी है या देशद्रोही?” मायावन्ती मुँह ढक कर सुबक रही थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मोहनलाल चुप था और उसके चेहरे पर चिन्ता के निशान उभरे हुए थे।
सन्तोष बड़े धैर्य से खड़ी सारी कार्यवाही सुन रही थी। ईश्वरदास ने अपने हक में कुछ भी न कहा। मजिस्ट्रेट ने उसको दो वर्ष की कैद की सजा सुना दी।
और अब ईश्वरदास की आँख तब ही खुली जब वार्डन रोटी के बरतन उठाने आया। उसके मन में कोई चिन्ता न थी, कोई अफसोस न था। जेल की कोठरी की गरमी, यह बेस्वाद रोटी, यह सलाखों वाली खिड़की जिसके पीछे वह बन्द था। सब कहीं पीछे रह गये थे। उसे फिर निसार अहमद का खिला हुआ चेहरा दिखाई दिया जिसके प्यार के आँगन में सईदा खातून की खुशी का पौधा फिर से लग गया था। वार्डन को बरतन पकड़ाते हुए वह उठ खड़ा हुआ और उसने सन्तोष से एक डकार ली।
-गुरमुख सिंह जीत

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