पाश्चात्य आधुनिकता को प्रोत्साहित करती सेल्फी संस्कृति के अच्छे परिणाम बहुत कम हैं जबकि दुष्परिणाम सबसे अधिक हैं ठीक उसीप्रकार जैसे मोबाइल संस्कृति के कुछ अच्छे परिणाम हैं तो उसके दुष्परिणाम बहुत अधिक हैं। सच कहा जाय तो इस सेल्फी संस्कृति को आजकल की सबसे लोकप्रिय सोसल मीडिया जैसेःफेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, ह्वाट्सऐप और कु आदि सबसे अधिक बढावा दे रहे हैं। यह संस्कृति वास्तव में मात्र दिखावे को बढ़ावा दे रही है। सबसे दुख की बात तो यह है कि सेलीब्रेटी सेल्फी, राजनेता सेल्फी, समूह सेल्फी, शादी-विवाह सेल्फी, क्रिकेट खेल सेल्फी, पर्यटन सेल्फी, प्रेमी-प्रेमिका सेल्फी, स्कूल-कॉलेज के बच्चे तथा युवाओं की सेल्फी, सितारें होटलों के अंतर्गत निर्मित अत्याधुनिक सेल्फी प्वाइंट आदि इसको सतत बढ़ावा दे रहे हैं। विकासशील देश भारतवर्ष में सेल्फी संस्कृति के अनेक दुष्परिणाम २०१४ से सबसे अधिक देखने को मिल रहे हैं। इससे साइबर अपराध बढ़ रहे हैं। दुर्घटनाएं सबसे अधिक हो रही हैं। प्रतिदिन इससे मौतों की संख्या बहुत बढ़ रही है। इससे अश्लीलता फल-फूल रही है।
भारतीय परिपेक्ष्य में अगर विचार किया जाय तो सेल्फी संस्कृति से आज सभी प्रभावित हैं बालक से वृद्ध तक, युवा-युवती से लेकर घर-परिवार तक। ऐसा पहले देखा जाता था कि महिलाएं जब कहीं जातीं थीं तो वे अपने साथ एक छोटा दर्पण लेकर जातीं थीं जिसमें वे अपनी छवि देखकर अति प्रसन्न होतीं थीं। आज उस दर्पण का स्थान मोबाइल फोन ले लिया है जिसमें वे अपनी तस्वीरें चौबीसों घण्टे देखती रहतीं हैं। श्रमिक और मजदूर वर्ग के लोग की कार्यक्षमता को यह संस्कृति बहुत कम कर दी है। वे भी सेल्फी संस्कृति से बुरी तरह से प्रभावित हो चुके हैं। शिक्षक-छात्र समुदाय का क्या कहना, वे भी इससे ग्रसित हो चुके हैं। पहले बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी कवि सम्मेलनों में कविगण स्वयं कविताओं का वाचनकर सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे लेकिन आजकल तो मोबाइल फोन उनकी अस्मिता को कम कर दिया है जिसमें कवितापाठ से पूर्व वे अपनी सेल्फी लेकर देख लेते हैं कि वे कैसे दिखते हैं। बड़े-बड़े कथाव्यास भी इससे वंचित नहीं हैं। साधु-महात्मा भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाये हैं। आप किसी भी देवालय में चले जाइए वहां का पूजक पूजा-पाठ पर कम सेल्फी पर अधिक ध्यान देता है। वह सबसे पहले देखता है कि उसका टीका तथा उसकी पोशाक कितनी सुंदर दिखती है।
सच तो यह है कि सनातनी १६ संस्कारों को भी सेल्फी संस्कृति बुरी तरह से प्रभावित कर चुकी है। यही कारण है कि इस संस्कृति के दुष्परिणामों से आस्ट्रेलिया, अमरीका, रुसी परिसंघ, ब्रिटेन, चीन, जापान, कनाडा जैसे अनेक देश के लोग, युवा-युवती और बडे-बुजुर्ग आदि प्रभावित हो चुके हैं। २०१३ से यह संस्कृति, जापानी मोबाइल फोन संस्कृति सबसे पहले पूर्वी एशिया में मनोरंजन की सबसे बडी साधन थी लेकिन इसका दुष्परिणाम वहां भी स्पष्ट रुप से आज देखा जा सकता है। शादी-विवाह में तो सेल्फी लेना तो एक आम बात हो गई है। अब तो मनपसंद वर-वधू के लिए तो सेल्फी संस्कृति पहली आवश्यकता बन चुकी है।सेल्फी संस्कृति हमारे सनातनी वैवाहिक जीवन को यूवज एण्ड थ्रो के रुप में परिणित कर दी है। इस संस्कृति आजकल तो पराये को अपना तथा अपनों को पराया बनाने में अहम् भूमिका निभा रही है।
भारत के कुछ राज्यों में चुनाव का माहौल है जिसमें सेल्फी संस्कृति की भूमिका देखने योग्य हैं। ऐसा लगता है कि २०२४ में भारत के लोकसभा के आमचुनावों में भी सेल्फी संस्कृति का दुष्परिणाम निर्विवाद रुप में देखने को अवश्य मिलेगा। २०१४ वर्ष वैसे तो सेल्फी वर्ष था। लेकिन उसके लिए भी सेल्फी सुरक्षा गाइड का होना आवश्यक था। आज के सूचना प्रौद्योगिकी के युग में सेल्फी संस्कृति पर अंकुश लगाने की जरुरत है जिससे कि हमारी भारतीयता सुरक्षित रह सके और हम गर्व के साथ कह सकें कि हम भारतीय आध्यात्मिक जीवन के विश्वगुरु हैं जहां पर हमारी पहचान सेल्फी नहीं है अपितु हमारी आंतरिक खूबियां हैं जो विश्व शांति, मैत्रा, एकता तथा विश्वबंधुत्व की भावना को आदिकाल से बढावा देती आ रहीं हैं और आनेवाले दिनों में भी देती रहेंगी। उसमें सेल्फी संस्कृति की भूमिका मात्र इतनी होगी कि इस संस्कृति से भारत का वैज्ञानिक विकास हो सकेगा तथा भारत की अंतरिक्ष विजययात्रा सफल होगी।
-अशोक पाण्डेय

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