Swarnim Mumbai ( हिंदी मासिक पत्रिका)

मराठी बनाम हिंदी विवाद

मुंबई एक ऐसी माया नगरी है, जिसे हर वर्ग, हर जाति, हर भाषा ने अपने खून-पसीने से बनाया है। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सिर्फ ‘हमने’ बनाया। मराठी ने आत्मा दी, उत्तर भारतीयों ने मज़बूती, गुजराती-मारवाड़ियों ने दौलत, दक्षिण भारतीयों ने दिमाग, और सब मिलकर इसे एक महानगर बनाया। ‘क्या इन सभी लोगों को मुंबई में मराठी बोलना ज़रूरी (compulsory) होना चाहिए?’ तो इसका उत्तर संतुलन और समझदारी से देना ज़रूरी है। संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण से भारत एक बहुभाषी लोकतंत्र देश है।

भारत अनेक भाषाओं का देश है। संविधान की आठवीं अनुसूची में २२ भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। हिंदी भारत की राजभाषा है, जबकि मराठी महाराष्ट्र की राजकीय भाषा है। दोनों भाषाओं का अपना इतिहास, साहित्य, संस्कृति और आत्मा है। परंतु आज हम इस विमर्श में इन दो भाषाओं को प्रतिद्वंदी की तरह देख रहे हैं – यह दुर्भाग्यपूर्ण है। विवाद का मुख्य कारण है – रोजगार और प्रशासन में भाषा का वर्चस्व, शहरीकरण और उत्तर भारतीय प्रवासियों का महाराष्ट्र में आगमन, सरकारी स्तर पर हिंदी को बढ़ावा और स्थानीय लोगों को अपनी भाषा से असुरक्षा और कुछ राजनैतिक दलों द्वारा भाषाई पहचान को उकसाना ये सारे कारण भाषाओं के बीच नहीं, बल्कि राजनीति और समाज के बीच पैदा हुए तनाव को दर्शाते हैं।

हिंदी ने पूरे भारत में एक संपर्क भाषा (link language) की भूमिका निभाई है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं को दबाया जाए। मराठी साहित्य, रंगमंच, सिनेमा और पत्रकारिता ने भारत को कई रत्न दिए हैं – पु. ल. देशपांडे, विजय तेंडुलकर, और आज के फिल्म निर्माता नितीन देसाई जैसे नाम गौरव का कारण हैं। समस्या तब आती है जब नौकरी, शिक्षा और शासन में एक भाषा को ज़रूरत से ़ज्यादा बढ़ावा दिया जाए और दूसरी को उपेक्षित किया जाए।

‘मुंबई जैसे शहर को आगे बढ़ाने में या मुंबई की सफलता एक सामूहिक प्रयास रही है, जिसमें कई वर्गों, समुदायों, और क्षेत्रों ने अपनी भूमिका निभाई है।  मराठी मानूस (स्थानीय निवासी – मूल महाराष्ट्रीयन समाज): कोलियों (मछुआरे), अगड़ी-पिछड़ी जातियों, कामगार वर्ग ने शुरुआती समय में मुंबई की नींव रखी। मिल मज़दूर, BEST कर्मचारियों, सरकारी कर्मचारियों में बड़ी संख्या मराठी लोगों की रही। शिवाजी पार्क, दादर, परेल जैसे इलाकों में सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता का गढ़ था। मराठी साहित्य, रंगमंच, पत्रकारिता ने मुंबई की पहचान गढ़ी। स्थानीय मराठी समाज ने मूल चरित्र और आत्मा को गढ़ा।

बिहारी, पूर्वांचली, उत्तर प्रदेश के लोग बड़े पैमाने पर रेलवे, टैक्सी-ऑटो, निर्माण, सब्ज़ी-बाज़ार, सुरक्षा गार्ड जैसे क्षेत्रों में आए और मेहनत की। दादर, धारावी, कुर्ला, भायंदर, मीरा रोड, वसई में इनकी बड़ी बस्तियाँ हैं। श्रमिक और सेवक के रूप में इन्होंने हर शहरवासी की ज़िंदगी को आसान बनाया। जिन्होंने हर स्तर की मेहनतकश नौकरियों को संभाला। मुंबई को आर्थिक राजधानी बनाने में गुजराती और मारवाड़ी व्यापारी वर्ग का बड़ा हाथ रहा है। स्टॉक मार्केट, कपड़ा व्यापार, ज्वेलरी, फिल्म फाइनेंसिंग, हीरा कारोबार आदि पर इनका कब्ज़ा रहा। बड़े उद्योगपति – अंबानी, अदानी, बिड़ला, गोयनका आदि इसी वर्ग से हैं। मुंबई को धन-आधारित, बिजनेस- frendly शहर बनाने में इनका बड़ा योगदान है।

 शिक्षा, तकनीक, बैंकिंग, सॉफ्टवेयर, डॉक्टरी, प्रशासन जैसे क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय लोगों का बहुत योगदान है। चेंबूर, माटुंगा, किंग्स सर्कल जैसे क्षेत्र इनके सांस्कृतिक केंद्र रहे हैं। मुंबई के बौद्धिक और शैक्षणिक स्तर को ऊंचा किया। देशभर से कलाकार, लेखक, गायक, तकनीशियन आए और मुंबई को मनोरंजन की राजधानी बना दिया। इसमें भी हर भाषा और क्षेत्र के लोग हैं – मराठी, पंजाबी, बंगाली, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय आदि।

मुंबई एक ऐसी माया नगरी है, जिसे हर वर्ग, हर जाति, हर भाषा ने अपने खून-पसीने से बनाया है। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सिर्फ ‘हमने’ बनाया। मराठी ने आत्मा दी, उत्तर भारतीयों ने मज़बूती, गुजराती-मारवाड़ियों ने दौलत, दक्षिण भारतीयों ने दिमाग, और सब मिलकर इसे एक महानगर बनाया। ‘क्या इन सभी लोगों को मुंबई में मराठी बोलना ज़रूरी (compulsory) होना चाहिए?’ तो इसका उत्तर संतुलन और समझदारी से देना ज़रूरी है। संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण से भारत एक बहुभाषी लोकतंत्र देश है।

संविधान की धारा १९(१)(a) हर नागरिक को स्वतंत्र रूप से बोलने की स्वतंत्रता देता है – जिसमें भाषा का चयन भी शामिल है। महाराष्ट्र की राजकीय भाषा मराठी है, इसलिए प्रशासनिक और शैक्षणिक मामलों में मराठी को प्राथमिकता दी जाती है — लेकिन यह अन्य नागरिकों पर थोपना अनुचित है। सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से अगर कोई व्यक्ति महाराष्ट्र में रहकर मराठी सीखता है, तो यह उसका सम्मान और जुड़ाव दर्शाता है। जैसे – कोई अगर तमिलनाडु में बसता है और तमिल सीखता है, तो वह स्थानीय संस्कृति से खुद को जोड़ पाता है। पर यह सीखना नैतिक कर्तव्य हो सकता है, न कि कानूनी बाध्यता।

भाषा प्रेम अगर सम्मान से हो तो वह संस्कृति को मजबूत करता है, लेकिन अगर जबरदस्ती हो तो वह विरोध और विभाजन को जन्म देता है। स्थानीय लोगों को सम्मान मिलना चाहिए, उनकी भाषा और संस्कृति की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। जो बाहर से आए हैं, उन्हें मराठी सीखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए – पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। राज्य सरकार मराठी को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, प्रचार, और प्रोत्साहन के ज़रिये काम करे – न कि दंड या धमकी के माध्यम से। मराठी सीखना – सम्मान का प्रतीक होना चाहिए, मजबूरी नहीं। मुम्बई सबकी है – मराठी मानूस की भी, और उस प्रवासी की भी जो इसे अप्ानाता है। हमें चाहिए कि मराठी को बढ़ावा दें – पर भाईचारे और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ। संविधान में सबको रहने का हक़ है, पर जहाँ रहते हैं वहां की मिट्टी को भी अपनाना चाहिए। महाराष्ट्र में मराठी जानना शान की बात है, शर्म की नहीं। ‘रहेंगे भी, सीखेंगे भी’ – यही भारत की सच्ची विविधता है।                              – मंगला नटराजन

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